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विष्णुप्रिया
एक समय के बाद, जब मन रुपी बादल सुख दुःख के भावों से, बोझिल हो शिथिल पड़ जाते है, तो... अथाह वेदना से, झंकारित अनेको दामनियाँ, त्वरित ही आहत कर तोड़ देती है उन्हें, बहा देने को समस्त विषाद, और फिर वर्षा के बाद, स्फूरित होता है एक नया दिन, जहाँ सूर्य की रक्तवर्णी रश्मियाँ, बिखेर देती है, अपनी अद्भुत आभा, संपूर्ण सृष्टि में, तब ही....हाँ तब ही, अंकुरित होते है, परम सत्व की नविनतम कोपलें अनंत मेल की संभावनाओं के साथ, एक नए आयाम में... #yqdidi #yqbaba #spirituality #हिंदी_कविता #जीवन_का_सत्य #आत्ममंथन #आद्यातमिक #विष्णुप्रिया एक समय के बाद, जब मन रुपी बादल सुख दुःख के भ
Vikas Sharma Shivaaya'
हिन्दू धर्म में गणेश जी सर्वोपरि स्थान रखते हैं। गणेश जी, शिवजी और पार्वती के पुत्र हैं। उनका वाहन मूषक है। गणों के स्वामी होने के कारण उनका एक नाम गणपति भी है। सभी देवताओं में इनकी पूजा-अर्चना सर्वप्रथम की जाती है। श्री गणेश जी विघ्न विनायक हैं। भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को मध्याह्न के समय गणेश जी का जन्म हुआ था। भगवान गणेश का स्वरूप अत्यन्त ही मनोहर एवं मंगलदायक है। वे एकदन्त और चतुर्बाहु हैं। अपने चारों हाथों में वे क्रमश: पाश, अंकुश, मोदकपात्र तथा वरमुद्रा धारण करते हैं। वे रक्तवर्ण, लम्बोदर, शूर्पकर्ण तथा पीतवस्त्रधारी हैं। वे रक्त चन्दन धारण करते हैं तथा उन्हें रक्तवर्ण के पुष्प विशेष प्रिय हैं। वे अपने उपासकों पर शीघ्र प्रसन्न होकर उनकी समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं। ज्योतिष में इनको केतु का देवता माना जाता है और जो भी संसार के साधन हैं, उनके स्वामी श्री गणेशजी हैं। हाथी जैसा सिर होने के कारण उन्हें गजानन भी कहते हैं। गणेश जी का नाम हिन्दू शास्त्रो के अनुसार किसी भी कार्य के लिये पहले पूज्य है। इसलिए इन्हें आदिपूज्य भी कहते है। गणेश कि उपसना करने वाला सम्प्रदाय गाणपतेय कहलाते है। विष्णु सहस्रनाम(एक हजार नाम) आज 301 से 311 नाम 301 युगावर्तः सतयुग आदि युगों का आवर्तन करने वाले हैं 302 नैकमायः अनेकों मायाओं को धारण करने वाले हैं 303 महाशनः कल्पांत में संसार रुपी अशन (भोजन) को ग्रसने वाले 304 अदृश्यः समस्त ज्ञानेन्द्रियों के अविषय हैं 305 व्यक्तरूपः स्थूल रूप से जिनका स्वरुप व्यक्त है 306 सहस्रजित् युद्ध में सहस्रों देवशत्रुओं को जीतने वाले 307 अनन्तजित् अचिन्त्य शक्ति से समस्त भूतों को जीतने वाले 308 इष्टः यज्ञ द्वारा पूजे जाने वाले 309 विशिष्टः अन्तर्यामी 310 शिष्टेष्टः विद्वानों के ईष्ट 311 शिखण्डी शिखण्ड (मयूरपिच्छ) जिनका शिरोभूषण है 🙏बोलो मेरे सतगुरु श्री बाबा लाल दयाल जी महाराज की जय 🌹 ©Vikas Sharma Shivaaya' हिन्दू धर्म में गणेश जी सर्वोपरि स्थान रखते हैं। गणेश जी, शिवजी और पार्वती के पुत्र हैं। उनका वाहन मूषक है। गणों के स्वामी होने के कारण उनका
रजनीश "स्वच्छंद"
बिहान है।। दर्द की है रात सो लो, आगे खुशी का बिहान है। हर रात की सुबह हुई, ये तो विधि का विधान है। हर कदम पे है सवाल, आंखें है तरेरे लाल लाल, हर सफर ये ज़िन्दगी लिए एक नया इम्तिहान है। हर राह कंकड़ से भरे, हैं पांवों में छाले भी पड़े, रक्तवर्णीत पथ दिखाता, पग का तेरे निशान है। खोल मुठ्ठी दान कर, जो बढ़ रहा अवसान पर, आरम्भ का है अंत भी, यम का चलता विमान है। मुड़के पीछे देखता क्या, है कमर तू टेकता क्या, रफ्तार जीवन की बड़ी है, ये त्वरित गतिमान है। विरले हैं वो जो चल रहे, छू क्षितिज जो ढल रहे, आनेवाली हर सन्तति का तू ही तो अभिमान है। शब्दों की माला गढ़ रहा, आहूत सीढ़ी चढ़ रहा, नर ही तो इस जहान में, तम भेदता कृपाण है। ©रजनीश "स्वछंद" बिहान है।। दर्द की है रात सो लो, आगे खुशी का बिहान है। हर रात की सुबह हुई, ये तो विधि का विधान है। हर कदम पे है सवाल, आंखें है तरेरे लाल ल
अशेष_शून्य
कुछ "पीड़ा" खोखली, खालीपन की बची रहनी चाहिए मेरे भीतर हमेशा ताकि बची रहूं कुछ "मैं" कुछ "तुम" और कुछ मुझमें "संवेदना" इतनी गहरी; इतनी ठहरी कि मैं किसी और को कभी किसी भी पीड़ा में न ठहरने दूं !! ~© Anjali Rai (शेष अनुशीर्षक में) बची रहनी चाहिए कुछ "पीड़ा" मेरे भीतर कुछ आसमां सी विस्तृत, क्षितिज तक संक्षिप्त, कुछ धरा की बंजर, मनस में कंकर, कुछ सागर सी गहरी,
रजनीश "स्वच्छंद"
मनःस्थिति।। अस्त्रसज्जित मैं खड़ा था, खल रही ललकार थी। मन के दानवों से युद्ध मे, मुझे दैव की दरकार थी। दुर्ग रक्षित संस्कृति का, भरभरा कर ढह रहा था, उसमे पनपता एक पल्लव हाथ जोड़े कह रहा था। वीर की थी पृष्ठभूमि जो, कब यहां साकार होगी, कब तलक ये आत्मा, निकृष्ट और लाचार होगी। विनय उस निर्बल की भी, पांव तले कुचली गई, थी कहानी चल रही, जीवन मृत्यु की टकरार थी। अस्त्रसज्जित मैं खड़ा था, खल रही ललकार थी। मन के दानवों से युद्ध मे, मुझे दैव की दरकार थी। अपने चरम पर दम्भ भी ले खड्ग था चल रहा, मुरझा गया था बीज भी जो गर्भ में था पल रहा। किसके हृदय को भेदता गजपाद का कम्पन रहा, भेदहींन ज्ञान था, कौन विषधर कौन चन्दन रहा। इस अंतहीन विषाद को छद्म सुख में मैं ढो रहा, चींटियों का झुंड था बस, अपनी लम्बी कतार थी। अस्त्रसज्जित मैं खड़ा था, खल रही ललकार थी। मन के दानवों से युद्ध मे, मुझे दैव की दरकार थी। बदला हुआ था रक्तवर्ण, जैसे हुआ शिथिल श्वेत, जिसको समेटे जा रहा, बन्द मुट्ठी में जैसे हो रेत। बालमन की संवेदना, उठ आज फिर से जगा रहा, नवसृजित कदमों से कम्पित पग मैं आगे बढ़ा रहा। फिर गगन छूने को पांव पंजे हाथ मैं विस्तारता हूँ, फिर से सुननी है मुझे, जो कल मेरी जयकार थी। अस्त्रसज्जित मैं खड़ा था, खल रही ललकार थी। मन के दानवों से युद्ध मे, मुझे दैव की दरकार थी। ©रजनीश "स्वछंद" मनःस्थिति।। अस्त्रसज्जित मैं खड़ा था, खल रही ललकार थी। मन के दानवों से युद्ध मे, मुझे दैव की दरकार थी। दुर्ग रक्षित संस्कृति का, भरभरा कर ढ
रजनीश "स्वच्छंद"
भगत है बस नाम नहीं। असली नकली का छोड़ भ्रम, देशप्रेम की आग रहे। असली भगत बनना जो चाहो, देशहित ही याद रहे। भगत भगत बस नाम नहीं, एक विचार एक क्रांति है। रुधिरों में जो बहता पानी, युवाजोश तो एक भ्रांति है। किस भुज जननी गर्व करे, किन पूतों का सम्मान करें। यौवन की कुंठित धार बहे, क्यूँ रोती सांझ बिहान करे। जननी को माता कहे नहीं, टुकड़े का स्वर बुलंद करे। अफजल को जो माने हीरो, हाफ़ीज़ को भी सन्त कहे। मां की जय कह सका नहीं, मज़हब की आड़ में जीता हो। ऐसे सन्तान हुए भगत कब, जो अपनो का लहु भी पीता हो। लाशों पर ना सींके रोटियां, मनुजहित की बात रहे। असली भगत बनना जो चाहो, देशहित ही याद रहे। समय भी बदले, युग भी बदले, जरूरी नहीं कि बदलें हम भी। सरहद पे गर जो हुई शहादत, होनी चाहिये आंखें नम भी। खुद को भगत जो कहते हो, मातृ-दशा पे हो क्यूँ मौन खड़े। आंखों से नीर नहीं क्यूँ बहता, नेपथ्य में रहे क्यूँ गौण पड़े। ये धरा तुम्हारी जननी, है माता, क्यूँ रहा रक्तवर्ण लाल नहीं। क्या सबूत तुम्हे दूँ वीर भगत का, तब पूछा था किसीने सवाल नहीं। तुम सोचो जरा विचार करो, क्या तुमने लिया क्या तुमने दिया। सरहद पे था वो मरता रहा, कब विष का प्याला तुमने पिया। ये कलंक तुम तक ही रहे, ना फिर ये तेरे बाद रहे। असली भगत बनना जो चाहो, देशहित ही याद रहे। ©रजनीश "स्वछंद" #NojotoQuote भगत है बस नाम नहीं। असली नकली का छोड़ भ्रम, देशप्रेम की आग रहे। असली भगत बनना जो चाहो, देशहित ही याद रहे। भगत भगत बस नाम नहीं, एक विचार एक
विष्णुप्रिया
गृहस्थ और वैराग्य के मध्य उलझे कुछ विचार, कुछ भाव, कुछ मान्यताएं, और, उनका उत्तर खोजती मैं... इसी उधेड़बुन में यह कहनी रच गई... ' हिमाद्रि ' कैप्शन में पढ़े... हिमालय....यह....नाम सुनते ही तीव्र अद्यात्मिक ऊर्जा का संचार सा होने लगता है मेरे भीतर । फिर भी आज तक हिमालय दर्शन का सौभाग्य, प्राप्त ना हो
Anil Siwach
Anil Siwach
Anil Siwach