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Ravi Shankar Kumar Akela
मोबाइल फ़ोन या मोबाइल (इसे सेलफोन और हाथफोन भी बुलाया जाता है, या सेल फोन, सेलुलर फोन, सेल, वायरलेस फोन, सेलुलर टेलीफोन, मोबाइल टेलीफोन या सेल टेलीफोन) एक लंबी दूरी का इलेक्ट्रॉनिक उपकरण है जिसे विशेष बेस स्टेशनों के एक नेटवर्क के आधार पर मोबाइल आवाज या डेटा संचार के लिए उपयोग करते हैं इन्हें सेल साइटों के रूप में जाना ... ©Ravi Shankar Kumar Akela #TereHaathMein मोबाइल फ़ोन या मोबाइल (इसे सेलफोन और हाथफोन भी बुलाया जाता है, या सेल फोन, सेलुलर फोन, सेल, वायरलेस फोन, सेलुलर टेलीफोन, मोबा
अनिता कुमावत
मनुष्य सामाजिक प्राणी है सोशल डिस्टेसिंग रखें भी तो कैसे ...???? कोरोना गाइडलाइन खत्म होते ही हिल स्टेशनों पर भारी भीड़ .... क्या कहें और क्या करें ☹️☹️ दूसरी लहर पूरी तरह खत्म नहीं हुई है, तीसरी लहर का
mangla varma
Virendra Singh
Parul Sharma
मंदिर में पानी भरती वह बच्ची चूल्हे चौके में छुकती छुटकी भट्टी में रोटी सा तपता रामू ढावे पर चाय-चाय की आवाज लगाता गुमशुदा श्यामू रिक्से पर बेबसी का बोझ ढोता चवन्नी फैक्ट्रीयों की खड़खड़ में पिसता अठन्नी सड़कों,स्टेशनों,बसस्टॉपों पर भीख माँगते बच्चे भूखे अधनंगे कचरे में धूँढते नन्हे हाथ किस्मत के टुकड़े खो गया कमाई में पत्थर घिसने वाला छोटे किसी तिराहे चौराहे पर बनाता सिलता सबके टूटे चप्पल जूते। दीवार की ओट से खड़ी वो उदासी है बेबस, है लाचार इन मासूमों की मायूसी दिनरात की मजदूरी है मजबूरी फिर भी है भूखा वह, भूखे माँ-बाप और बहन उसकी। कुछ ऐसा था आलम उस पुताई वाले का पोतता था घर भूख से बिलखता। कुछ माँगने पर फूफा से मिलती थी मार लताड़। इसी तरह बेबस शोषित हो रहे हैं कितने ही बच्चे बार-बार। न इनकी चीखें सुन रहा, न नम आँखें देख रहा वक्त, समाज, सरकार!!! होना था छात्र, होता बस्ता हाथ में, इनका बचपन भी खेलता, साथियों व खिलौनों के साथ में। पर जकड़ा !! गरीबी,मजदूरी,भुखमरी और बेबसी ने इनके बचपन को! शर्मिंदा कर रही इनकी मासूमियत समाज की मानवता को। दी सरकार ने... जो स्कूलों में निशुल्क भोजन पढाई की व्यवस्था पेट भरते है उससे अधिकारि ही ज्यादा। फिर क्या मिला ? इन्हें इस समाज से बना दिया सरकार ने.. बस एक " बाल श्रमिक दिवस"इनके नाम से। पारुल शर्मा मंदिर में पानी भरती वह बच्ची चूल्हे चौके में छुकती छुटकी भट्टी में रोटी सा तपता रामू ढावे पर चाय-चाय की आवाज लगाता गुमशुदा श्यामू रिक्से पर
Parul Sharma
मंदिर में पानी भरती वह बच्ची चूल्हे चौके में छुकती छुटकी भट्टी में रोटी सा तपता रामू ढावे पर चाय-चाय की आवाज लगाता गुमशुदा श्यामू रिक्से पर बेबसी का बोझ ढोता चवन्नी फैक्ट्रीयों की खड़खड़ में पिसता अठन्नी सड़कों,स्टेशनों,बसस्टॉपों पर भीख माँगते बच्चे भूखे अधनंगे कचरे में धूँढते नन्हे हाथ किस्मत के टुकड़े खो गया कमाई में पत्थर घिसने वाला छोटे किसी तिराहे चौराहे पर बनाता सिलता सबके टूटे चप्पल जूते। दीवार की ओट से खड़ी वो उदासी है बेबस, है लाचार इन मासूमों की मायूसी दिनरात की मजदूरी है मजबूरी फिर भी है भूखा वह, भूखे माँ-बाप और बहन उसकी। कुछ ऐसा था आलम उस पुताई वाले का पोतता था घर भूख से बिलखता। कुछ माँगने पर फूफा से मिलती थी मार लताड़। इसी तरह बेबस शोषित हो रहे हैं कितने ही बच्चे बार-बार। न इनकी चीखें सुन रहा, न नम आँखें देख रहा वक्त, समाज, सरकार!!! होना था छात्र, होता बस्ता हाथ में, इनका बचपन भी खेलता, साथियों व खिलौनों के साथ में। पर जकड़ा !! गरीबी,मजदूरी,भुखमरी और बेबसी ने इनके बचपन को! शर्मिंदा कर रही इनकी मासूमियत समाज की मानवता को। दी सरकार ने... जो स्कूलों में निशुल्क भोजन पढाई की व्यवस्था पेट भरते है उससे अधिकारि ही ज्यादा। फिर क्या मिला ? इन्हें इस समाज से बना दिया सरकार ने.. बस एक " बाल श्रमिक दिवस"इनके नाम से। पारुल शर्मा #ChildLabour मंदिर में पानी भरती वह बच्ची चूल्हे चौके में छुकती छुटकी भट्टी में रोटी सा तपता रामू ढावे पर चाय-चाय की आवाज लगाता गुमशुदा श्य
Agrawal Vinay Vinayak
रामायण रिटर्न्स [Read Captain 👇👇] #रामायण रिटर्न्स ______________________________________ #ram #yqbaba #yqvinayvinayak #yqdidi आजकल तमाम प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों पर, जन
Lata Sharma सखी
जिंदगी गुजरती है कई सारे स्टेशनों से, कुछ में हम ठहरते हैं कुछ हममें ठहर जाते हैं, सुनो! तुम मेरा ऐसा ही कोई स्टेशन हो, जिसमें मैं जरा ठहरी तो वो मुझमें ठहर गया। ©सखी ©Lata Sharma सखी #स्टेशन
Neelam bhola
बचपन,जवानी,बुढ़ापा जैसे स्टेशन हो कोई, रेलवे स्टेशन!! या रेलवे स्टेशन में सिमट आये हो ये दौर जिंदगी के, सुबह का स्टेशन मानो नन्हा बच्चा हो कोई, कभी शांत,कभी चाय चाय की किलकारी सा गूंजता, सौंधी सी खुशबु लिये, बच्चे कि हँसी सा, कभी खिलखिलाता,कभी चुपचाप स्टेशन, बचपन का सा स्टेशन,हल्के से आँख मूँदता-खोलता सा दिखता है, न आने-जाने की होड़ कहीं, आदमी ना भागता सा,ज़रा रुका सा दिखता है, दोपहर होते होते स्टेशन पे भीड़ बढ़ती जाती है, जवानी की ही तरह जिम्मेदारी हर तरफ नज़र आती है, कहीं कूली,कहीं चाय,कहीं लोगों का सामान, जवानी का पहर है, ये है मुश्किल,है नही आसान, चारों तरफ रिश्तों और जिम्मेदारियों की तरह लोग नज़र आते है, ना जाने कहाँ जाते है,कहाँ से लौट के आते हैं, कुछ न आने के लिये वापिस, कुछ न जाने के लिये आते है, जवानी भी कुछ इसी तरह के पहलुओं को समेटें है, कहीं खड़े हैं लोग,कहीं बेबस से लैटे हैं, बुढ़ापे की तरह ही ढलती है हर एक शाम स्टेशन पर, कुछ लोगों के लिये खास, कुछ लोगों के लिये आम स्टेशन पर, बुढ़ापे की तन्हाई की तरह, स्टेशन की शाम भी तन्हा होती जाती है, स्टेशन पे अब गाड़ी भी कुछ कम ही आती हैं, न कूली,न चाय न साजो-सामान होता है, बुढ़ापे की ही तरह तन्हा स्टेशन, हर रोज़ आम होता है।।।। ©Neelam bhola स्टेशन