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N S Yadav GoldMine

#humanrights धृतराष्‍ट्र का शोकातुर हो जाना और विदुरजी का उन्‍हें पुन शोक निवारण के लिये उपदेश पढ़िए महाभारत !! 🌷🌷 महाभारत: नवम पर्व चतुर्थ #पौराणिककथा

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#gururavidas श्री कृष्‍ण का धृतराष्‍ट्र को फटकार कर उनका क्रोध शान्‍त करना और धृतराष्‍ट्र का पाण्‍डवों को हृदय से लगाना पढ़िए महाभारत !! 📝📝 #समाज

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#SAD {Bolo Ji Radhey Radhey} नियुक्त किये हुए न्यायाधिकारी पुरुष अपराधियों के अपराध की मात्रा को भली भाँति जानकर जो दण्डनीय हों, उन्हें ही उ #मोटिवेशनल

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Love पाण्‍डवों को शाप देने के लिये उद्यत इुई गान्‍धारी को व्‍यासजी का समझाना पढ़िए महाभारत !! 🌷🌷 {Bolo Ji Radhey Radhey} महाभारत: स्‍त्री प #पौराणिककथा

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#JallianwalaBagh पाण्‍डवों को शाप देने के लिये उद्यत इुई गान्‍धारी को व्‍यासजी का समझाना पढ़िए महाभारत !! 📒📒 {Bolo Ji Radhey Radhey} महाभारत #पौराणिककथा

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#lonely श्रीकृष्‍ण द्वारा राजा परीक्षित का नामकरण तथा पाण्‍डवों का हस्‍तिनापुर के समीप आगमन पढ़िए महाभारत !! 👑👑 {Bolo Ji Radhey Radhey} महाभा #पौराणिककथा

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श्रीकृष्‍ण द्वारा राजा परीक्षित का नामकरण तथा पाण्‍डवों का हस्‍तिनापुर के समीप आगमन पढ़िए महाभारत !! 👑👑
{Bolo Ji Radhey Radhey}
महाभारत: :- आश्‍वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व) सप्‍ततितम अध्याय: श्लोक 1-21 

	श्रीकृष्‍ण द्वारा राजा परीक्षित का नामकरण तथा पाण्‍डवों का हस्‍तिनापुर के समीप आगमन

🎇 वैशम्‍पायनजी कहते है- राजन! भगवान श्रीकृष्‍ण ने जब ब्रह्मास्‍त्र को शान्‍त कर दिया, उस समय वह सूतिकागृह तुम्‍हारे पिता के तेज से देदीप्‍यमान होने लगा। फिर तो बालकों का विनाश करने वाले समस्‍त राक्षस उस घर को छोड़कर भाग गये। इसी समय आकाशवाणी हुई- केशव! तुम्‍हें साधुवाद! तुमने बहुत अच्‍छा कार्य किया। साथ ही वह प्रज्‍वलित ब्रह्मास्‍त्र ब्रह्मलोक को चला गया। 

🎇 नरेश्‍वर! इस तरह तुम्‍हारे पिता को पुनर्जीवन प्राप्‍त हुआ। राजन्! उत्‍तरा का वह बालक अपने उत्‍साह और बल के अनुसार हाथ-पैर हिलाने लगा, यह देख भरतवंश की उन सभी स्‍त्रियों को बड़ी प्रसन्‍नता हुई। उन्‍होंने भगवान श्रीकृष्‍ण की आज्ञा से ब्राह्मणों द्वारा स्‍वस्‍तिवाचन कराया। 

🎇 फिर वे सब आनन्‍दमग्‍न होकर श्रीकृष्‍ण के गुण गाने लगीं। जैसे नदी के पार जाने वाले मनुष्‍यों को नाव पाकर बड़ी खुशी होती है, उसी प्रकार भरतवंशी वीरों की वे स्‍त्रियां-कुन्‍ती, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्‍तरा एवं नर वीरों की स्‍त्रियां उस बालक के जीवित होने से मन–ही–मन बहुत प्रसन्‍न हुईं। भरतश्रेष्‍ठ! तदनन्‍तर मल्‍ल, नट,ज्‍योतिषी, सुख का समाचार पूछने वाले सेवक तथा सूतों और मागधों के समुदाय कुरुवंश की स्‍तुति और आशीर्वाद के साथ भगवान श्रीकृष्‍ण का गुणगान करने लगे। 

🎇 भरतनन्‍दन! फिर प्रसन्‍न हुई उत्‍तरा यथासमय उठकर पुत्र को गोद में लिये हुए यदुनन्‍दन श्रीकृष्‍ण के समीप आयी और उन्‍हें प्रणाम किया। भगवान श्रीकृष्‍ण ने प्रसन्‍न होकर उस बालक को बहुत से रत्‍न उपहार में दिये। फिर अन्‍य यदुवंशियों ने भी नाना प्रकार की वस्‍तुएं भेंट की। 

🎇 महाराज! इसके बाद सत्‍यप्रतिज्ञ भगवान श्रीकृष्‍ण ने तुम्‍हारे पिता का इस प्रकार नामकरण किया। कुरुकुल के परिक्षीण हो जाने पर यह अभिमन्‍यु का बालक उत्‍पन्‍न हुआ है। इसलिये इसका नाम परीक्षित होना चाहिये।ऐसा भगवान ने कहा। नरेश्‍वर! इस प्रकार नामकरण हो जाने के बाद तुम्‍हारे पिता परीक्षित कालक्रम से बड़े होने लगे। भारत! वे सब लोगों के मन को आनन्‍दमग्‍न किये रहते थे। 

🎇 वीर भरतनन्‍दन! जब तुम्‍हारे पिता की अवस्‍था एक महीने की हो गयी, उस समय पाण्‍डव लोग बहुत सी रत्‍नराशि लेकर हस्‍तिनापुर को लौटे। वृष्‍णिवंश के प्रमुख वीरों ने जब सुना कि पाण्‍डव लोग नगर के समीप आ गये हैं, तब वे उनकी अगवानी के लिये बाहर निकले। पुरवासी मनुष्‍यों ने फूलों की मालाओं, वन्‍दनवारों, भांति–भांति की ध्‍वजाओं तथा विचित्र–विचित्र पताकाओं से हस्‍तिनापुर को सजाया था। 

🎇 नरेश्‍वर! नागरिकों ने अपने–अपने घरों की सजावट की थी। विदुरजी ने पाण्‍डवों का प्रिय करने की इच्‍छा से देवमन्‍दिरों में विविध प्रकार से पूजा करने की आज्ञा दी। हस्‍तिनापुर के सभी राजमार्ग फूलों से अलंकृत किये गये थे।

©N S Yadav GoldMine #lonely श्रीकृष्‍ण द्वारा राजा परीक्षित का नामकरण तथा पाण्‍डवों का हस्‍तिनापुर के समीप आगमन पढ़िए महाभारत !! 👑👑
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महाभा

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कुरु वन्स की उतपत्ति:- पुराणो के अनुसार ब्रह्मा जी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध, और बुध से इलानन्दन पुरूरवा का जन्म हुआ। पुर #Travel #पौराणिककथा

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कुरु वन्स की उतपत्ति:- पुराणो के अनुसार ब्रह्मा जी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध, और बुध से इलानन्दन पुरूरवा का जन्म हुआ। पुरूरवा से आयु, आयु से राजा नहुष, और नहुष से ययाति उत्पन्न हुए। ययाति से पुरू हुए। पूरू के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरु हुए। 

कुरु के वंश में शान्तनु का जन्म हुआ। शान्तनु से गंगानन्दन भीष्म उत्पन्न हुए। उनके दो छोटे भाई और थे – चित्रांगद और विचित्रवीर्य। ये शान्तनु से सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। शान्तनु के स्वर्गलोक चले जाने पर भीष्म ने अविवाहित रह कर अपने भाई विचित्रवीर्य के राज्य का पालन किया।
 
भीष्म महाभारत के प्रमुख पात्रों में से एक हैं। ये महाराजा शांतनु के पुत्र थे। अपने पिता को दिये गये वचन के कारण इन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लिया था। इन्हें इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था। 

 एक बार हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत आखेट खेलने वन में गये। जिस वन में वे शिकार के लिये गये थे उसी वन में कण्व ऋषि का आश्रम था। कण्व ऋषि के दर्शन करने के लिये महाराज दुष्यंत उनके आश्रम पहुँच गये। पुकार लगाने पर एक अति लावण्यमयी कन्या ने आश्रम से निकल कर कहा, हे राजन् महर्षि तो तीर्थ यात्रा पर गये हैं, किन्तु आपका इस आश्रम में स्वागत है। 
 
 उस कन्या को देख कर महाराज दुष्यंत ने पूछा, बालिके आप कौन हैं? बालिका ने कहा, मेरा नाम शकुन्तला है और मैं कण्व ऋषि की पुत्री हूँ। उस कन्या की बात सुन कर महाराज दुष्यंत आश्चर्यचकित होकर बोले, महर्षि तो आजन्म ब्रह्मचारी हैं फिर आप उनकी पुत्री कैसे हईं? 
 
 उनके इस प्रश्न के उत्तर में शकुन्तला ने कहा, वास्तव में मेरे माता-पिता मेनका और विश्वामित्र हैं। मेरी माता ने मेरे जन्म होते ही मुझे वन में छोड़ दिया था जहाँ पर शकुन्त नामक पक्षी ने मेरी रक्षा की। इसी लिये मेरा नाम शकुन्तला पड़ा। 
 
 उसके बाद कण्व ऋषि की दृष्टि मुझ पर पड़ी और वे मुझे अपने आश्रम में ले आये। उन्होंने ही मेरा भरन-पोषण किया। जन्म देने वाला, पोषण करने वाला तथा अन्न देने वाला – ये तीनों ही पिता कहे जाते हैं। इस प्रकार कण्व ऋषि मेरे पिता हुये। 
 
 शकुन्तला के वचनों को सुनकर महाराज दुष्यंत ने कहा, शकुन्तले तुम क्षत्रिय कन्या हो। यदि तुम्हें किसी प्रकार की आपत्ति न हो तो मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ। शकुन्तला भी महाराज दुष्यंत पर मोहित हो चुकी थी, अतः उसने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। दोनों नें गन्धर्व विवाह कर लिया। कुछ काल महाराज दुष्यंत ने शकुन्तला के साथ विहार करते हुये वन में ही व्यतीत किया। 
 
 फिर एक दिन वे शकुन्तला से बोले, प्रियतमे मुझे अब अपना राजकार्य देखने के लिये हस्तिनापुर प्रस्थान करना होगा। महर्षि कण्व के तीर्थ यात्रा से लौट आने पर मैं तुम्हें यहाँ से विदा करा कर अपने राजभवन में ले जाउँगा।

 इतना कहकर महाराज ने शकुन्तला को अपने प्रेम के प्रतीक के रूप में अपनी स्वर्ण मुद्रिका दी और हस्तिनापुर चले गये। 

 एक दिन उसके आश्रम में दुर्वासा ऋषि पधारे। महाराज दुष्यंत के विरह में लीन होने के कारण शकुन्तला को उनके आगमन का ज्ञान भी नहीं हुआ और उसने दुर्वासा ऋषि का यथोचित स्वागत सत्कार नहीं किया। दुर्वासा ऋषि ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोधित हो कर बोले, बालिके मैं तुझे शाप देता हूँ कि जिस किसी के ध्यान में लीन होकर तूने मेरा निरादर किया है, वह तुझे भूल जायेगा। 
 
 दुर्वासा ऋषि के शाप को सुन कर शकुन्तला का ध्यान टूटा और वह उनके चरणों में गिर कर क्षमा प्रार्थना करने लगी। शकुन्तला के क्षमा प्रार्थना से द्रवित हो कर दुर्वासा ऋषि ने कहा, अच्छा यदि तेरे पास उसका कोई प्रेम चिन्ह होगा तो उस चिन्ह को देख उसे तेरी स्मृति हो आयेगी। 
 
 महाराज दुष्यंत से विवाह से शकुन्तला गर्भवती हो गई थी। कुछ काल पश्चात् कण्व ऋषि तीर्थ यात्रा से लौटे तब शकुन्तला ने उन्हें महाराज दुष्यंत के साथ अपने गन्धर्व विवाह के विषय में बताया। इस पर महर्षि कण्व ने कहा, पुत्री विवाहित कन्या का पिता के घर में रहना उचित नहीं है। 
 
 अब तेरे पति का घर ही तेरा घर है। इतना कह कर महर्षि ने शकुन्तला को अपने शिष्यों के साथ हस्तिनापुर भिजवा दिया। मार्ग में एक सरोवर में आचमन करते समय महाराज दुष्यंत की दी हुई शकुन्तला की अँगूठी, जो कि प्रेम चिन्ह थी, सरोवर में ही गिर गई। उस अँगूठी को एक मछली निगल गई। 
 
 महाराज दुष्यंत के पास पहुँच कर कण्व ऋषि के शिष्यों ने शकुन्तला को उनके सामने खड़ी कर के कहा, महाराज शकुन्तला आपकी पत्नी है, आप इसे स्वीकार करें। महाराज तो दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण शकुन्तला को विस्मृत कर चुके थे। अतः उन्होंने शकुन्तला को स्वीकार नहीं किया और उस पर कुलटा होने का लाँछन लगाने लगे। शकुन्तला का अपमान होते ही आकाश में जोरों की बिजली कड़क उठी और सब के सामने उसकी माता मेनका उसे उठा ले गई। 
 
 जिस मछली ने शकुन्तला की अँगूठी को निगल लिया था, एक दिन वह एक मछुआरे के जाल में आ फँसी। जब मछुआरे ने उसे काटा तो उसके पेट अँगूठी निकली। मछुआरे ने उस अँगूठी को महाराज दुष्यंत के पास भेंट के रूप में भेज दिया। अँगूठी को देखते ही महाराज को शकुन्तला का स्मरण हो आया और वे अपने कृत्य पर पश्चाताप करने लगे। महाराज ने शकुन्तला को बहुत ढुँढवाया किन्तु उसका पता नहीं चला।
 
 कुछ दिनों के बाद देवराज इन्द्र के निमन्त्रण पाकर देवासुर संग्राम में उनकी सहायता करने के लिये महाराज दुष्यंत इन्द्र की नगरी अमरावती गये। संग्राम में विजय प्राप्त करने के पश्चात् जब वे आकाश मार्ग से हस्तिनापुर लौट रहे थे तो मार्ग में उन्हें कश्यप ऋषि का आश्रम दृष्टिगत हुआ। उनके दर्शनों के लिये वे वहाँ रुक गये। आश्रम में एक सुन्दर बालक एक भयंकर सिंह के साथ खेल रहा था। मेनका ने शकुन्तला को कश्यप ऋषि के पास लाकर छोड़ा था तथा वह बालक शकुन्तला का ही पुत्र था। उस बालक को देख कर महाराज के हृदय में प्रेम की भावना उमड़ पड़ी। 
 
 वे उसे गोद में उठाने के लिये आगे बढ़े तो शकुन्तला की सखी चिल्ला उठी, हे भद्र पुरुष आप इस बालक को न छुयें अन्यथा उसकी भुजा में बँधा काला डोरा साँप बन कर आपको डस लेगा। यह सुन कर भी दुष्यंत स्वयं को न रोक सके और बालक को अपने गोद में उठा लिया। अब सखी ने आश्चर्य से देखा कि बालक के भुजा में बँधा काला गंडा पृथ्वी पर गिर गया है। सखी को ज्ञात था कि बालक को जब कभी भी उसका पिता अपने गोद में लेगा वह काला डोरा पृथ्वी पर गिर जायेगा। 
 
 सखी ने प्रसन्न हो कर समस्त वृतान्त शकुन्तला को सुनाया। शकुन्तला महाराज दुष्यंत के पास आई। महाराज ने शकुन्तला को पहचान लिया। उन्होंने अपने कृत्य के लिये शकुन्तला से क्षमा प्रार्थना किया और कश्यप ऋषि की आज्ञा लेकर उसे अपने पुत्र सहित अपने साथ हस्तिनापुर ले आये। महाराज दुष्यंत और शकुन्तला के उस पुत्र का नाम भरत था। 
 बाद में वे भरत महान प्रतापी सम्राट बने और उन्हीं के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष हुआ।

©N S Yadav GoldMine कुरु वन्स की उतपत्ति:- पुराणो के अनुसार ब्रह्मा जी से अत्रि, अत्रि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से बुध, और बुध से इलानन्दन पुरूरवा का जन्म हुआ। पुर

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