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anurag saxena
मैं दरख़्त की पत्ती सा तुम पँछी के पंखों सी जो एक बार फड़फड़ा जाओ तो डाली से मैं झड़ जाऊँ। मैं प्यासा चातक पक्षी सा तुम बारिश की फुआर सी जो एक बार बरस जाओ तो मैं आजीवन तर जाऊँ। मैं घास के तिनकों सा तुम ठंड के कोहरे सी जो एक बार गिर जाओ तो मैं पाला सा जम जाऊँ। --------------अनुराग मैं दरख़्त की पत्ती सा----!
Raone
कैसी तलब-ए-जुनूँ है हमें तेरी मुहब्बत की पर जुटा तो हम कब से तेरी जुदाई रहे...... तू नाराज़ इस क़दर हुयी है हमसे देख ये भी तू नहीं बल्कि____ तेरे आंगन में बजती ये शहनाई बता रहे...... राone@उल्फ़त-ए-ज़िन्दग़ी ©मेरी दुनियाँ मेरी कवितायेँ शहनाई
Mannu
उसने सुखी हुई ,,नीम की पत्ती को हाथो से उठाकर मसल दिया ,, A - दोस्त और मेरी तरफ देख कर कहा कि ,, हम दिल का भी यही हाल करते हैं म@ननु उसने सुखी हुई नीम की पत्ती,,,
Dipin Tarbundiya
घर पर रिश्तें की बात हो रही है मेरी तस्वीर मंगवाई है.. तेरे जवाब के चक्कर में कुंवारा न मर जाऊँ पक्का अब तो बजनी शहनाई है.. शहनाई...
sunny pal
तुम से शादी तो ना हुई मगर तेरी यादों की बारात बहुत सताती है मिलना चाहें अगर तुम्हें तो तेरी शादी की शहनाईयां मेरे दिल में उतर जाती है कभी सोचता हूंँ बर्बाद कर दूंँ तुम्हें फिर सोचता हूँ तुम जहां हो ख़ुश रहो बस जे ही दुआ दिल से निकल जाती है ©sunny pal #शहनाई
Vikas sharma
तेरी मेरी लकीर मिल जाती तो आज बात कुछ औऱ होती बजती शहनाई , होती विदाई तो आज बात कुछ औऱ होती @विकास ©Vikas sharma #HandsOn शहनाई
Vikas sharma
भीड़ में भी अकेले हो ,छाई कोई तन्हाई हो जैसे वीराने में मुस्काते हो,अंदर बज रही कोई शहनाई हो जैसे हवा में ये मधुर संगीत ,घुला सा है जाने क्यूँ आज दूर कहीं,किसी खेत मे,कोई फ़सल लहराई हो जैसे रूह मेरी, मुझसे आज जुदा हो रही है ऐसे लगता है अगले पल में ,बिटिया की विदाई हो जैसे तारीखों के खेल ,इल्जामों के ये सिलसिले तुमसे मिलकर यूँ लगा,मुक़दमे की कोई सुनवाई हो जैसे इस अधूरेपन में, मुकम्मल होने का ये कैसा अहसास है किसी बंज़र ज़मीं में,बारिश की पहली पुरवाई हो जैसे ये फिकरें,ये परवाह , ये हिफ़ाज़ती का आलम जीवन भर की ये कोई, कमाई हो जैसे सामने होकर भी,लब्ज़ पहुँच ना सके उस तक दरमियाँ दोनों के बीच, कोई ग़हरी खाई हो जैसे बरसो बाद वापस लौटा, बूढ़ी आंखे पहचान ना सकी चौखट पे तमाम उम्र.. इंतज़ार में बिताई हो जैसे @विकास ©Vikas sharma #Wochaand शहनाई
nitsmit penshanwar
सुखे हुँऐ पत्ती को जरा आज भी पुछ लिजिऐ हरे पेड पर रँहना अच्छा लगता था ।कि धुप में तपते जमीन पर बारीश में भिगकर खिलना अच्छा लगता था। कि किचड मे रोंदकर। नितस्मित पेंशनवार ©nitukolhe smitnit पत्ती #selflove