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Usha Yadav

उचक्का #विचार

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"उचक्का" 1989 के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित  आत्मकथा बिना आत्मदया या किसी किस्म की आत्माशलाघा  के हमारे सामाजिक यथार्थ को सामने लाती है। दलित लेखकों की परंपरा कथा से अलग है यह ऐसा आत्मवृत्तांत है जो समाज के छोटे छोटे अपराधों पर परवरिश पाते एक समूह का प्रतिनिधित्व करता है। इस समाज वयवस्था की और जब मैं गौर से देखता हूं तो बेचैन हो जाता है और महसूस करता हूं कि मेरे समाज के सैकड़ों वर्षों से अन्याय होता रहा है। उनके कल्याण के लिए योजनाएं कार्यान्वित  नहीं होती है और जो थोड़ी बहुत होती भी है वह उन तक नहीं पहुंच पाती है। 

मनुष्य के रूप में जीने का अधिकार ही इस व्यवस्था ने छीन लिया है। वास्तव में यह आत्मकथा एक कार्यकर्ता का काफी मुख्य चिंतन है। इस कारण इस आत्मकथा का  साहित्यिक मूल्यांकन करने की अपेक्षा समाज शासत्रीय मूल्यांकन हो यह अपेक्षा है

    ( "उचक्का" लक्षमण गायकवाड़) उचक्का

हिंदीवाले

डाकू नहीं, ठग नहीं, चोर या उचक्का नहीं कवि हूँ मैं मुझे बख्श दीजिए दारोग़ा जी काव्य-पाठ हेतु मुझे मंच पे पहुँचना है मेरी मजबूरी पे पसीजिए दा #कविता

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डाकू नहीं, ठग नहीं, चोर या उचक्का नहीं
कवि हूँ मैं मुझे बख्श दीजिए दारोग़ा जी
काव्य-पाठ हेतु मुझे मंच पे पहुँचना है
मेरी मजबूरी पे पसीजिए दारोग़ा जी
ज्यादा माल-मत्ता मेरी जेब में नहीं है अभी
पाँच का पड़ा है नोट लीजिए दारोग़ा जी
पौन बोतल तो मेरे पेट में उतर गई
पौवा ही बचा है इसे पीजिए दारोग़ा जी
~अल्हड़ बीकानेरी

©हिंदीवाले डाकू नहीं, ठग नहीं, चोर या उचक्का नहीं
कवि हूँ मैं मुझे बख्श दीजिए दारोग़ा जी
काव्य-पाठ हेतु मुझे मंच पे पहुँचना है
मेरी मजबूरी पे पसीजिए दा

Vandana

मौजूदा हालात ऐसे हैं कि मन कहीं उखड़ गया है, बहुत कुछ बिखर गया है, जड़ की तलाश में शाखाओं में आ खड़े हैं हम, स्थिति यह है कि ना जमी है ना #lifelessons #yqdidi #lifeline #realityoflife

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शिकायतों को पूरा करते-करते खुद से शिकायत हो गई है अब,
कमियों को पूरा करते करते खुद में कमी नजर आने लगी है अब,
पूर्णता की तलाश में अधूरा पन भा रहा है अब,
गागर को भरते भरते एक बूंद की कमी सी रह जाती है,
एक बूंद की तलाश में चल पड़ते हैं,
जब तक एक बूंद हाथों में लेकर आते
तब तक फिर एक बुदं की कमी रह जाती है,
वह कहीं सूरज की रोशनी में गुम हो जाती है मौजूदा हालात ऐसे हैं कि मन कहीं उखड़ गया है,
 बहुत कुछ बिखर गया है,
 जड़ की तलाश में शाखाओं में आ खड़े हैं हम,
 स्थिति यह है कि ना जमी है ना

Santosh Sagar

देश के मजदूरों को हक़-अधिकार चाहिए ! #OPS जो दे दे वो सरकार चाहिए.....2

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देश के मजदूरों को हक़-अधिकार चाहिए !                                             
#OPS जो दे दे वो सरकार चाहिए.....2                                               
अब न कटता है वो , बुढ़ापे वाली सर्दी...                              
हमको तो बस झूठे दिखते ये सरकार बेदर्दी.....                        
देश चलाने वाला ,एक जिम्मेदार चाहिए....                            
#OPS जो दे दे वो सरकार चाहिए.....2.                             

क्या देंगे जब लौट के वापस घर को हम जायेंगे...                                               
पूरी कमाई  ख़तम हो गया , क्या हम यहीं कहेंगे..                                              
 आँशु को जो रोक सके वो किरदार चाहिए...                                                  
#OPS जो दे दे वो सरकार चाहिए.....2.                                                     

अगर #OPS बुरी है तो खुद को दूर क्यों रक्खा ..                             
पढ़े-लिखे  हैं हम भी साहब , न हैं चोर-उचक्का  ...                          
देश को अब न आप जैसा मक्कार  चाहिए....                                 
#OPS जो दे दे वो सरकार चाहिए..... 2                                      

बेवस  और लाचार बुढ़ापे को अब न भड़काओ..                                               
क्या कमी  है #OPS में सबको ये बतलाओ  ...                                               
लगता है की लड़ाई अब आर-पार चाहिए...                                                     
#OPS जो दे दे वो सरकार चाहिए........... 2                                                 
 :- संतोष 'साग़र'                 #NojotoQuote देश के मजदूरों को हक़-अधिकार चाहिए !                                             
#OPS जो दे दे वो सरकार चाहिए.....2

Aprasil mishra

******************** चवन्नी ढूढ़ता बेमन, वो देखो तंग गलियों में। नियत मजबूर करती है, हवस की भंग कलियों में। सताती भूख है जब भी, जतन अधिका #Change #Childhood #yqhindi #abuse #kachra #viewpoint #हरिगोविन्दविचारश्रृंखला

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"कचरा और  बचपन "
    
     (अनुशीर्षक में)- ********************
चवन्नी  ढूढ़ता  बेमन,
वो देखो तंग गलियों में। 
नियत मजबूर करती है,
हवस की भंग कलियों में।
सताती भूख है जब भी,
जतन अधिका

Ejaz Ahmad

चोर उचक्का हूँ, बेईमान हूँ मैं  कौन कहता है मुसलमान हूँ मैं  कहीं सुन्नी हूँ, कहीं शिया हूँ कहीं बरेलवी तो कहीं देवबंदी  था ख़ुदा को जो महब #Poetry #kavishala #Shayari #dpf #Pagal #ejaz

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चोर उचक्का हूँ, बेईमान हूँ मैं 
कौन कहता है मुसलमान हूँ मैं 


कहीं सुन्नी हूँ, कहीं शिया हूँ
कहीं बरेलवी तो कहीं देवबंदी 
था ख़ुदा को जो महब
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