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रजनीश "स्वच्छंद"
जीवन सार।। लघु-शेष तन्द्रित जीवधारा, अवसान वृहद न किंचित होगा। मूल विहीन, संचय विहीन, शुष्क बाग न तब सिंचित होगा। प्रयत्नशील, शीला-काय प्रण, मूर्छित भी नहीं, विस्मित भी नहीं। दिक-भ्रम रहित अविरल वेगी, लज्जित भी नहीं, कम्पित भी नहीं। सृजन की धारा..... नवसृजित एक पल्लव, अन्तरगर्भ ले रहा आकार है। दलन करने दमन को, मूक हो, ले उठा जयकार है। शुष्क सी बंजर धरा भी, हो मुदित है खिल गई। स्वप्नसज्जित नयन द्वार को, एक दस्तक मिल गई। अश्रुपूरित हैं नेत्र, किंतु, मंगल गान हृदय में फूटता। यज्ञ आहूत हो रहा, मलय गन्ध वायु झूमता। है दीवाली मन रही, आरम्भ से अवसान हारा। आस की ज्योति प्रज्वलित, हुआ जग गुंजायमान सारा। कपट कुत्सित विचार की, होलिका है जल रही। आनंद रस का स्वाद ले, लेखनी है चल रही। सूर्य उदित होने को आतुर, छंट रहा तम बाह्य-अंदर। मन का सूरज आ किनारे, डाल बैठा लौह-लंगर। बनती दिशाएं स्वयं सूचक, किरणें हुईं सहगामिनी। है थिरकती लेखनी, ज्यों मद में चली गजगामिनी। ©रजनीश "स्वछंद" जीवन सार।। लघु-शेष तन्द्रित जीवधारा, अवसान वृहद न किंचित होगा। मूल विहीन, संचय विहीन, शुष्क बाग न तब सिंचित होगा। प्रयत्नशील, शीला-काय प्र