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Aftab @123
अनुज
कुछ विषधर से विषैले है तन साफ मगर मन मैले है कब काटे गर्दन न पता चले आजू-बाजू सब फैले हैं स्वेत अपितु मटमैले है मित्र शत्रु बन खेले हैं दूर रहें दुःख में जो मेरे सुख में सारे चेले है कुछ मित्र मेरे खपरैले है बन जड़ें वृक्ष की फैले हैं दिल में गुबार रखकर के मुंह पर गुड़ के ढेले है दुख सुख जीवन के ठेले है जीवन के रूप अलबेले है बचे रहो तुम खो मत जाना चहुं ओर तुम्हारे मेले है ©अनुज कुछ विषधर से विषैले है तन साफ मगर मन मैले है कब काटे गर्दन न पता चले आजू-बाजू सब फैले हैं स्वेत अपितु मटमैले है मित्र शत्रु बन खेले हैं दूर
AK__Alfaaz..
क्या थीं वो, आग थीं, पानी थीं, आसमान थीं, खूँटियों पर टँगी, तस्वीरों की मुस्कान थीं, मिट्टी थीं, बिछौना थीं, संसार थीं, दरीचे से झाँकती, धूप का एहसास थीं, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_में #क्या_थीं_वो..? क्या थीं वो, आग थीं, पानी थीं, आसमान थीं,
अमित चौबे AnMoL
थिरक रही जो सारे जग में,हां वहीं चांदनी लाल चटक खपरैलो के नन्हे छिद्रों से मेरे घर में सौगात बराबर लाती हैं मेरे घर चांदनी आती हैं। #sharadpurnima #शरदपूर्णिमा #पूर्णिमा #उत्सव #हिन्दी_काव्य_कोश #हिंदी #hindi #hindipoetry ●◆●जय श्री राम●◆● ________________________________
Pushpvritiya
बदला तो ज्यादा कुछ नहीं था, हाँ.......कुछ सड़कें पक्की हो गई थी, "फूस" की जगह छप्परों पर "खपरैल" आ गए थे..... नाशपाती के बागानों के "बाड़" ऊंचे हो गए थे और महाशय की "आई बी" जीर्ण शीर्ण मिली..... अरे हां और वो काका काकी..जो लकड़ी के चुल्हे पर की दाल पकाकर ला दिया करते थे, समय चक्र ने उन्हें लील लिया था.... एक और बात गौरतलब थी.. .बंदरों की "संतति" आशातीत बढ़ी थी...और व्यवहार "मानवीय" लग रहे थे.... बच्चों का "उत्साह" वैसा ही जैसा "तेरह वर्ष" पहले मेरे भीतर था..... नेतरहाट की "यात्रा".... "महाशय" के साथ.... "बाइक" पर.... "हमारा बजाज" के ऐड पर "अभिनय" करते हुए........ वही जंगलों-पहाड़ों के मध्य से गुज़रते रास्ते.... वही "सुकून" की हवा....वही "शांति" की अनुभूति....वही "सूर्यास्त"...कुछ सिखाता हुआ....वही "सूर्योदय".....कुछ जगाता हुआ.... "नेतरहाट....एक संस्मरण" वर्षों पूर्व लिखने की "सोची" थी...उस सोच को "शब्द" मिले "कच्चे-पक्के" से...... कुछ "भुल" गई.... कुछ "याद" रहा...कुछ "समेट" लाई...कुछ "छूट" गया........ @पुष्पवृतियां . . ©Pushpvritiya बदला तो ज्यादा कुछ नहीं था, हाँ.......कुछ सड़कें पक्की हो गई थी, "फूस" की जगह छप्परों पर "खप
Odysseus
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पालघर व्यथा शर पर लगा था डंडा या कोई खपरैल लहू से लथपथ था शरीर , महीना था अप्रैल|| ** भीड़ ** न तो
Ashish Kanchan
वो माँ वो माँ कुछ गंदे, थोड़े फ़टे कपड़ों में, अधढका बदन लिए हुए वो माँ, कुछ इस तरह बुझे चूल्हे में, सिसकते अंगारों को देखती है तन्हा। के अपने आप ही
AK__Alfaaz..
फागुन की, बलखाती साँँझ, ढ़लने को थी, टूटी खपरैल की दराजों से, आँख मिंजती धूप, दालान को, हल्दी लगाकर, सोने चली, कुछ कतरे, रौशनी के, धूप के...कांधे से झरकर, आँखों की बरसात से सीली, उम्मीद की दीवार पर, आशाओं के पीले अक्षत से, बिखर गए, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे #तेरहवीं_का_ब्याह फागुन की, बलखाती साँँझ, ढ़लने को थी, टूटी खपरैल की दराजों से,
AK__Alfaaz..
सोलह सोमवार की, इक साँझ को, दिल की, दहलीज पर अपनी, बैठी वो, गिन रही थी, अँगुलियों के पोरों पर, अपने सत्रहवें सावन मे, बरसी बारिश की उन बूँदों को, जो मन के अहाते में, सोते समय, गिरी थीं, इच्छाओं की टूटी खपरैल से, #पूर्ण_रचना_अनुशीर्षक_मे #अपराजिता सोलह सोमवार की, इक साँझ को, दिल की, दहलीज पर अपनी,