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Parasram Arora
ये ऊँची उठी हुई मंजिले और ये आकाश छूती अट्टालिकाएं .......उन लोगो की हड्डियों के पसीने से बनी है ......जो तलहटी में गुजर. बसर क्रर. रहे है वो भी नमक के साथ बासी रोटी खाकर ..छिद्रित पैबंद लगे वस्त्रो से अपना तन. डक क़र अट्टालिकाएं ......
Sarita Shreyasi
स्वप्न जले भींगी आँखों के, बिना दीप ही जली दिवाली, कहीं समृद्धि कहीं शून्यता, इस दुनिया की हर बात निराली। (दीपावली, मेरी पुस्तक: जाग रे मन ) पूरी कविता caption में अट्टालिकाएं दीपों से सज गयी, रह गयी कच्ची मुंडेर खाली, मिली न फुरसत भव्य भवनों से, तंग गलियों से गुजर ना पायी चिर प्रतीक्षित महंगी दिवाली।