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रजनीश "स्वच्छंद"
नयी सभ्यता।। चलो फिर से जंगलों, पहाड़ों, सबको आज़ाद करते हैं। लुढ़कने दो पत्थरों को, टकराने दो पत्थरों को, निकलने दो चिंगारी, एक आग लगने दो, एक नयी सभ्यता संस्कृति, फिर से आबाद करते हैं। चलो फिर से जंगलों, पहाड़ों, सबको आज़ाद करते हैं। बहने दो नदियों को, अविरल, निर्बाध। मत रोको, बहने दो बिन बांध। काट डालने दो किनारों को, बहा ले जाने दो चट्टानों को। बंनाने दो एक मैदान, नए युग की जन्मस्थली का निर्माण। फिर से हड़प्पा, फिर से मोहनजोदड़ो, फिर से बहने दो सिंधु को। होने दो विस्तार, नवपल्लवों का विकास, फिर विस्तरित होने दो बिंदु को। चलो एक ये पुण्य-कार्य, सब मिल निर्विवाद करते हैं। चलो फिर से जंगलों, पहाड़ों, सबको आज़ाद करते हैं। बह जाने दो मेरा तेरा के भाव को, बह जाने दो पूर्ण-आभाव को। शीतलता पुनरावृति में है, खण्डित हो जाने दो ठहराव को। एक नई संस्कृति की आहट, पड़ने दो कानों में। जो भी काटी फसल अब तक, पड़े रहने दो खलिहानों में। मनुजता से पशुता की यात्रा, कर ली है पूरी हमने। है समय पुनरुत्थान का, चलो फिर से गढ़ने सपने। चलो परमात्म शून्य में, लघुतम अति सूक्ष्म, फिर से मिलने दो परमाणुओं को, आरम्भ एक अनन्त का। एक तात्विक निर्माण, एक सात्विक निर्माण, निर्मित होने दो धातुओं अधातुओं को, विस्तार एक समरस पंथ का। समा शून्य में पुनः, एक गर्जना, एक नाद करते हैं। चलो फिर से जंगलों, पहाड़ों, सबको आज़ाद करते हैं। ©रजनीश "स्वछंद" नयी सभ्यता।। चलो फिर से जंगलों, पहाड़ों, सबको आज़ाद करते हैं। लुढ़कने दो पत्थरों को, टकराने दो पत्थरों को, निकलने दो चिंगारी, एक आग लगने दो,
Aprasil mishra
"प्रकृति और समाजिक पीड़ा : पुनर्सृष्टि निर्माण हेतु प्रकृति से आह्वान" ( अनुशीर्षक में देखें) तुम कौन हो...? अज्ञात हो, पर नेह की... बरसात हो। व्यवहार तेरा सौम्य है, अनभिज्ञ सा संवाद हो। तृण तुल्य भी परिचय नहीं, पर देख
vasundhara pandey
नव संवत्सरं शुभं भवेत्। प्रवर्त्तमान श्री ब्रह्मा के द्वितीय परार्द्ध में श्री श्वेतवाराह कल्प, वैवस्वत मन्वन्तर के अठ्ठाईसवें कलियुग के प्रथम चरण में, जम्बूद्वीप