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पूर्वार्थ
पीड़ा_मित्र_के_मन_की बेखबर है, ये रातें, ये रातें नही, तुम परेशान लगते, बताते नही क्या हुआ है,कुछ तो बोलो मगर, तुम ऐसे तो, बातें छिपाते नही जो हंसकर, खुशी से था, मिलता मुझे, क्यों ,मेरे दोस्त तुम अब, मुस्कुराते नही हुआ क्या बताओगे कुछ तो मुझे, मेरा फोन तुम,अक्सर उठाते नही, ये कहकर, मैं अकेले ही रहने, दूं तुम्हे, ये कहकर तो, तुम मुझसे जाते नही, हुई बात कुछ तो, बताओ भी अब, तुम यूं रोकर तो मुझको बुलाते नही, वो बोला सब अच्छा है, तू अपना बता, मेरे दोस्त तुम , तो , बातें घुमाते नही! मिला जब ,मैं उससे,लिपटकर, रोने लगा, जो अंदर से हो टूटा, फिर समझाते नही - ©purvarth #पीड़ा_मित्र_के_मन_की
अनुपम अनूप"भारत"
"अपेक्षाओं के त्याग पश्चात भी जब अवाश्यकताओं की पूर्ति नही होती तब अत्यंत पीड़ा होती हैं।" #पीड़ाहरण
Nidhi Pant
जिन पीड़ाओं की आवाज़ नहीं होती,उन्हें लिखकर कहा जाता है। वो भर लेती हैं बड़े से बड़ा घाव जब उन्हें पढ़ा जाता है।उन्हें किसी के समय की नहीं संवेदना की ज़रूरत होती है। तब जाकर कहीं अवयक्तता की जकड़न से मुक्त हो पाती हैं। #पीड़ाएं
अनामिका पाण्डेय
जाने कितनी ही दफा ,क्या क्या तुझसे कह डाला मुझे इस बात का हां इल्म है जरा भी नहीं मिली तकलीफ जो खुद शब्द बिखरते ही गए सबकुछ पतझार है मुझमें है हरा कुछ भी नही ©अनामिका पाण्डेय #shabd पीड़ाएं
अनामिका पाण्डेय
पीड़ाएं ही व्याप्त हैं चहुँ दिश चारों ओर घना अंधियारा अर्णव के खारे समीर सा होता जाता मन भी खारा नयनों की भी अजब कहानी दिन हंसता रातें वीरानी नीरवता का स्वर गुंजित है रुदन मचाए मन बेचारा बीते दिन बीती स्मृतियां कहने को सब बीत चुका है दस्तक देते कल का जाने पन्ना होगा कितना कारा पागल मन को क्या समझाएं पागल तो आखिर पागल है मन को शून्य बनाकर जीना शेष यही क्या ध्येय हमारा ©Anamika Pandey पीड़ाएं #alone
LAKSHMI KANT MUKUL
दीपावली के बाद मुंह अँधेरे में हंसिया से सूप पिटते हुए लोग बोलते हैं बोल ‘इसर पईसे दलिदर भागे , घर में लछिमी बास करे’ और फेंक देते हैं उसे जलते ढेर में हर साल भगाया जाता है दरिद्र को चुपके से लौट आता है वह हमारे सपनों , हमारी उम्मीदों को कुचलता हुआ कद्दू के सूखे तुमड़ी में माँ घी के दिए जलाकर छोड़ती है नदी में जिसमें मैं बहा आता था कागज़ की नाव झिलमिल धार में बहती हुई जाती थी किसी दूसरे लोक में कितनी दीपावलियाँ आई जीवन में जलते रहे दीप फिर भी अंतस में पीड़ाओं के _ लक्ष्मीकांत मुकुल दीप पीड़ाओं के
LAKSHMI KANT MUKUL
दीपावली के बाद मुंह अँधेरे में हंसिया से सूप पिटते हुए लोग बोलते हैं बोल ‘इसर पईसे दलिदर भागे , घर में लछिमी बास करे’ और फेंक देते हैं उसे जलते ढेर में हर साल भगाया जाता है दरिद्र को चुपके से लौट आता है वह हमारे सपनों , हमारी उम्मीदों को कुचलता हुआ कद्दू के सूखे तुमड़ी में माँ घी के दिए जलाकर छोड़ती है नदी में जिसमें मैं बहा आता था कागज़ की नाव झिलमिल धार में बहती हुई जाती थी किसी दूसरे लोक में कितनी दीपावलियाँ आई जीवन में जलते रहे दीप फिर भी अंतस में पीड़ाओं के _ लक्ष्मीकांत मुकुल दीप पीड़ाओं के
प्रेम और मैं
प्रेम और पीड़ाएं एक दूसरे की पूरक है प्रेम में पीड़ा और पीड़ाओं में प्रेम असीम आनंद का स्त्रोत है। प्रेम और पीड़ाएं🌸❣️
Er.ABHISHEK SHUKLA
परिवर्तन कभी पीड़ादायक नहीं होता। केवल परिवर्तन का विरोध पीड़ादायक होता है। ©Er.ABHISHEK SHUKLA परिवर्तन कभी पीड़ादायक नहीं होता। केवल परिवर्तन का विरोध पीड़ादायक होता है। #meltingdown #motivationalquotes #Nojoto #abhishekshukl11