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Chintan Ke Kshan चिंतन के क्षण महिलाएँ शिक्षा प्राप्त करें, ज्ञानार्जन करें, विचारवान् बनें तभी तो उनसे यह आशा की जा सकती है कि वे परिवार में और समाज समें अपने उत्तरदायित्वों को भलीभाँति निबाह सकेंगी। यदि इन आवश्यक तत्त्वों की ओर से ध्यान हटाकर आभूषण प्रियता की संकीर्ण विचारधारा को ही अपनाया जाता रहा तो कर्त्तव्य पालन में व्यवधान आना स्वाभाविक है। नारी के विकास में बाधा स्वरूप इस कुरीति के प्रति अब अरुचि उत्पन्न होनी चाहिए और विचारशील महिलाओं को इस दिशा में कुछ करने के लिए तत्पर होना चाहिए। यदि नारी की क्षमता को जगाया जाय, उसे योग्य बनाने की ओर ध्यान दिया जाय तो न केवल हमारे परिवार में स्वर्गीय वातावरण की सृष्टि हो सकेगी, वरन् समाज के लिए भी कई दृष्टियों से लाभकर स्थिति बन सकती है। गृह-व्यवस्था को सँभालने के बाद उसके पास जो समय बचता है वह बाहरी प्रयोजनों में ही तो लगेगा और जाग्रत् शक्ति क्षमतावान् नारी अपनी योग्यता से समाज के लिए सुखद परिस्थितियाँ तथा प्रगतिशील वातावरण बना सकेगी। परिवार निर्माण का परोक्ष अर्थ है-नारी जागरण। अर्द्ध मूर्छि, पददलित, आलस्य, प्रमाद और पिछड़ेपन से ग्रस्त नारी अपने लिए और परिवार के लिए भार ही रहती है। रोटी, कपड़ा, पाती और बदले में रसोईदारिन, चौकीदारिन, जननी, धात्री और चलती-फिरती गुड़िया की हलकी भारी भूमिका निभाती है। इस पिछड़ेपन के रहते वह परिवार निर्माण जैसे असाधारीण कार्य को संपन्न कैसे कर सकेगी। इसके लिए सूझबूझ, संतुलन, अनरवत प्रयास की आवश्यकता पड़ती है। योजना का स्वरूप, परिमाण एवं अवरोधों का समाधान भी उसके सामने आना चाहिए। दुष्ट प्रचलनों में सर्वनाशी है-विवाहोन्माद। खर्चीली शादियाँ हमें दरिद्र और बेईमान बनाती हैं। दहेज के लेन-देन में कितने घर-परिवार बर्बाद हुए और दर-छर के भिखारी बने हैं इसका बड़ा मर्मभेदी इतिहास है। बारात की धूमधाम, आतिशबाजी, गाजे-बाजे, दावतें, दिखावे, प्रदर्शन में इतना अपव्यय होता है कि एक सामान्य गृहस्थ की आर्थिक कमर ही टूट जाती है। लड़की का माँस बेचने वाला दहेज के व्यवसायी अपने मन में भले ही प्रसन्न होते और नाक ऊँची देखते हों, पर यदि विवेक से पूछा जाय तो इन अदूरदर्शियों के ऊपर दसों दिशाओं से धिक्कार ही बरसती दिखेगी। विवेकवान् युवकों का कर्त्तव्य है कि दहेज न लेने, धूमधाम की शादी स्वीकार न करने की प्रतिज्ञा आन्दोलन चलायें और उस व्रत को अभिभावकों की नाराजगी लेकर भी निभायें। चिंतन के क्षण
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👉 Chintan Ke Kshan चिंतन के क्षण स्वार्थी व्यक्ति यों किसी का कुछ प्रत्यक्ष बिगाड़ नहीं करता, किन्तु अपने लिए सम्बद्ध व्यक्तियों की सद्भावना खो बैठना एक ऐसा घाटा है, जिसके कारण उन सभी लाभों से वंचित होना पड़ता है जो सामाजिक जीवन में पारस्परिक स्नेह-सहयोग पर टिके हुए हैं। ईश्वर को इस बात की इच्छा नहीं कि आप तिलक लगाते हैं या नहीं, पूजा-पत्री करते हैं या नहीं, भोग-आरती करते हैं या नहीं, क्योंकि उस सर्वशक्तिमान् प्रभु का कुछ भी काम इन सबके बिना रुका हुआ नहीं है। वह इन बातों से प्रसन्न नहीं होता, उसकी प्रसन्नता तब प्रस्फुटित होती है जब अपने पुत्रों को पराक्रमी, पुरुषार्थी, उन्नतिशील, विजयी, महान् वैभव युक्त, विद्वान्, गुणवान्, देखता है और अपनी रचना की सार्थकता अनुभव करता है। आनंद का सबसे बड़ा शत्रु है- असंतोष। हम प्रगति के पथ पर उत्साहपूर्वक बढ़ें, परिपूर्ण पुरुषार्थ करें। आशापूर्ण सुंदर भविष्य की रचना के लिए संलग्न रहें, पर साथ ही यह भी ध्यान रखें कि असंतोष की आग में जलना छोड़ें। इस दावानल में आनंद ही नहीं, मानसिक संतुलन और सामर्थ्य का स्रोत भी समाप्त हो जाता है। असंतोष से प्रगति का पथ प्रशस्त नहीं, अवरुद्ध ही होता है। किसी को यदि परोपकार द्वारा सुखी करते हैं और किसी को अपने क्रोध का लक्ष्य बनाते हैं, तो एक ओर का पुण्य दूसरी ओर के पाप से ऋण होकर शून्य रह जायेगा। गुण, कर्म, स्वभाव तीनों का सामंजस्य एवं अनुरूपता ही वह विशेषता है, जो जीवन जीने की कला में सहायक होती है। ऐसे विश्वासों और सिद्धान्तों को अपनाइये जिनसे लोक कल्याण की दिशा में प्रगति होती हो। उन विश्वासों और सिद्धान्तों को हृदय के भीतरी कोने में गहराई तक उतार लीजिए। इतनी दृढ़ता से जमा लीजिए कि भ्रष्टाचार और प्रलोभन सामने उपस्थित होने पर भी आप उन पर दृढ़ रहें, परीक्षा देने एवं त्याग करने का अवसर आवे तब भी विचलित न हों। वे विश्वास श्रद्धास्पद होने चाहिए, प्राणों से अधिक प्यारे होने चाहिए। ✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य चिंतन के क्षण
Pradyumn awsthi
मूर्ख इंसान किसी भी काम को उसके परिणाम को सोचे बिना ही कर देता हैं समझदार इंसान पहले सोचता है उसके बाद काम को करता हैं और ज्ञानी व्यक्ति पहले ही पूर्ण आकलन करके अपने काम को पूरा भी कर लेता है और उसे पूर्ण सफलता भी प्राप्त हो जाती हैं यही अंतर होता है एक न्यूनतम ,मध्यम और उच्चतम स्तर के इंसानों मैं ©"pradyuman awasthi" #स्तर
Parasram Arora
आकुलता लिए. भविष्य भोर की पहली किरण की प्रतिक्षा कर रहाहै और अव्यय अतीत गुमनाम कब्रों मे फिर से सांस लेने की कोशिश कर रहा है जबकि आलसी वर्तमान का कीड़ा अपनी मंद गति का पुनर्नमूल्यांकन करने के लिएफिर से साहस बटोर रहा है ©Parasram Arora समय के तीन काल
Parasram Arora
ज़ब मै नन्हा शिशु था.... मै प्रभु से ये नियमित प्रार्थना करता था "हे प्रभु मुझे शक्ति दे.. मुझे इस बिगड़ी हुई दुनिया क़ो बदलना है " फिर मै थोड़ा और बड़ा हुआ स मझदार बना तब मैंने अपनी प्रार्थना मे थोड़ा और संशोधन किया. मैंने प्रभु से कहा " मुझे क्षमा करना प्रभुजी. मैंने तुझसे कुछ ज्यादा ही मांग लिया था.... आधी उमर गुज़ार चुका लेकिन मै एक भी आदमी क़ो सुधारने मेया बदलने मे सफल नहीं हो सका..... अब मै पूरी दुनिया क़ो बदलने की फ़िक्रमे नहीं हूँ...... अब तों केवल मेरा अपना परिवार सुधर जाये तों काफी होगा "...... अब तों तीन चौथाई उम्र गुज़र चुका हूँ मै और इस निष्कर्ष.पऱ पहुंच गया था कि मेरी प्रार्थना मे एक अंतिम संशीधन होना ही चाहिए था.... तब मैंने प्रभु से कहा " मै अब अंतिम मुकाम पर आ चुका हूँ अब तों मुझे ऐसा करने की अनुमति प्रदान करो प्रभु कि मै खुद क़ो बदल डालूँ" परमात्मा ने कहा "अब बहुत देर हो चुकी..अब कोई संभावना तुम्हारे सुंधरने की नहीं बची है और उम्र के इस अंतिम पड़ाव पऱ. बदलने या सुधरने का कोई फायदा भी नहीं है " ...." ©Parasram Arora उम्र के तीन पड़ाव