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fahmi Ali

इमाम हुसैन का जन्म दिन आप सभी को मोबारक हो

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फ़ख्रे़ आदम नाज़े काबा रूहे सजदा आ गया
                                         क़         र              
जब से इस दौरे तरक़्की़ में "corona"आ गया
फिर पलट कर बारगाहे हक़ में बंदा आ गया

मौसमें वहशत है हर सू दिन ये कैसा आ गया
हां मगर इंसान को अब सर झुकाना आ गया

फ़ख्रे़ आदम फ़ख्रे यहया फ़ख्रे़ ईसा आ गया
शुक्र है इंसानियत का एक मसीहा आ गया
 
आज हम ख़ुश है बहोत इतने गमों के बावजूद
हा मगर इब्लीसियत को फिर से रोना आ गया

ख़ुशबुए मौलूद से महका है सहने बूतोराब
और बराय तहनियत अर्शे मोअल्ला आ गया

तश्नगी इंसानियत की बुझ नहीं पाती कभी
शुक्र है अल्लाह का ख़ुद चल के दरिया आ गया

आमदे शब्बीर की "फ़हमी" ख़ुशी कुछ देर थी
याद आई कर्बला और मुझको रोना आ गया
                               Fahmi Ali ✍️ इमाम हुसैन का जन्म दिन आप सभी को मोबारक हो

Masumwriter

अगर इस्लाम को जानना है तो पहले हजरत इमाम हुसैन को जानो मजहबे इस्लाम के सबसे खूबसूरत जवाब हैं #alone #Poetry

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हजारों तोहमाते तलागते हजारों बुराई करते 
बात झूट है फिर भी एक दूसरे का गवाही करते
हर गलत बात को इस्लाम से जोड़ देते हैं
मैंने हुसैन क्या बोला वो लोग चुप हो गए

©Masumwriter अगर इस्लाम को जानना है तो पहले हजरत इमाम हुसैन को जानो मजहबे इस्लाम के सबसे खूबसूरत जवाब हैं

#alone

Akib Javed

सब  लुटा  डाले है जो  कर्बोबला  में दीन  के  खातिर जो सर झुकाते नहीं दीन   को  है  बचाया  अपने सजदे  से हम उस हुसैन(स.अ.) को भुलाते  नहीं #Poetry #shayri #कविता #akib #इमाम #ख़ेराज #muharram1441

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सब  लुटा  डाले है जो  कर्बोबला  में
दीन  के  खातिर जो सर झुकाते नहीं

दीन   को  है  बचाया  अपने सजदे  से
हम उस  हुसैन(स.अ.) को भुलाते  नहीं

-आकिब जावेद सब  लुटा  डाले है जो  कर्बोबला  में
दीन  के  खातिर जो सर झुकाते नहीं

दीन   को  है  बचाया  अपने सजदे  से
हम उस  हुसैन(स.अ.) को भुलाते  नहीं

Vaseem Akhthar

زہرا کے چمن میں جو پھول کھلے تھے کربلا کی خاک میں آج بکھرے پڑے تھے کیسا سماں، کیسا ظلم و ستم ہوگا سسکیاں لیتے

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ज़हरा    के    चमन    में   जो   फूल   खिले   थे।
करबला  की   ख़ाक   में  आज  बिखरे  पड़े   थे।।

कैसा   समाँ,   कैसा    ज़ुल्म-ओ-सितम    होगा।
सिसकियाँ   लेते  बच्चों   में  जब  तीर  गढ़े   थे।।

सर  पे  सजाए   सेहरा,  चेहरे  पे  लिए  मुस्कान।
शहादत  के  लिए  क़ासिम,  दूल्हे   से  सजे   थे।।

करते  थे   प्यार   से   हुसैन   नाना   की  सवारी।
उनसे   गले   लगने   को  आज  तैयार   खड़े  थे।।

पहने नाना की पगड़ी, बाबा की थामे ज़ुलफ़िक़ार।
शहादत   को   हुसैन   मर्तबा  दिलवाने  चले   थे।।

जिन की अदब में सर-ए-ख़म उठने से था क़ासिर।
उनके ही सर-ए-अक़दस आज  नेज़ों  पे  चढ़े   थे।।

क्यूं ना बहाऊं आँसू, क्यूं ना  मनाऊं  सोग अख़्तर।
तुझ को पहुंचाने दीन-ए-हक़, अहल-ए-बैत कटे थे।। زہرا  کے  چمن  میں   جو   پھول  کھلے  تھے
کربلا  کی  خاک  میں  آج  بکھرے  پڑے  تھے
کیسا    سماں،   کیسا    ظلم   و   ستم   ہوگا
سسکیاں لیتے

Vaseem Akhthar

زہرا کے چمن میں جو پھول کھلے تھے کربلا کی خاک میں آج بکھرے پڑے تھے کیسا سماں، کیسا ظلم و ستم ہوگا سسکیاں لیتے

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ज़हरा    के    चमन    में   जो   फूल   खिले   थे।
करबला  की   ख़ाक   में  आज  बिखरे  पड़े   थे।।

कैसा   समाँ,   कैसा    ज़ुल्म-ओ-सितम    होगा।
सिसकियाँ   लेते  बच्चों   में  जब  तीर  गढ़े   थे।।

सर  पे  सजाए   सेहरा,  चेहरे  पे  लिए  मुस्कान।
शहादत  के  लिए  क़ासिम,  दूल्हे   से  सजे   थे।।

करते  थे   प्यार   से   हुसैन   नाना   की  सवारी।
उनसे   गले   लगने   को  आज  तैयार   खड़े  थे।।

पहने नाना की पगड़ी, बाबा की थामे ज़ुलफ़िक़ार।
शहादत   को   हुसैन   मर्तबा  दिलवाने  चले   थे।।

जिन की अदब में सर-ए-ख़म उठने से था क़ासिर।
उनके ही सर-ए-अक़दस आज  नेज़ों  पे  चढ़े   थे।।

क्यूं ना बहाऊं आँसू, क्यूं ना  मनाऊं  सोग अख़्तर।
तुझ को पहुंचाने दीन-ए-हक़, अहल-ए-बैत कटे थे।। زہرا  کے  چمن  میں   جو   پھول  کھلے  تھے
کربلا  کی  خاک  میں  آج  بکھرے  پڑے  تھے
کیسا    سماں،   کیسا    ظلم   و   ستم   ہوگا
سسکیاں لیتے
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