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Author Harsh Ranjan

लोकतंत्र में राम का मखौल नहीं, नेताओं की आलोचना ईशनिंदा कहलाती है। ईश

ईश

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वेदों की दिशा

.।। ओ३म् ।।

प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्‌ तन्मयो भवेत्‌ ॥

ॐ (प्रणव) है धनुष तथा आत्मा है बाण, और 'वह', अर्थात् 'ब्रह्म' को लक्ष्य के रूप में कहा गया है। 'उसका' प्रमाद रहित होकर वेधन करना चाहिये; जिस प्रकार शर अर्थात् बाण अपने लक्ष्य में विलुप्त हो जाता है उसी प्रकार मनुष्य को 'उस' में (ब्रह्म में) तन्मय हो जाना चाहिये।

OM is the bow and the soul is the arrow, and That, even the Brahman, is spoken of as the target. That must be pierced with an unfaltering aim; one must be absorbed into That as an arrow is lost in its target.

( मुण्डकोपनिषद् २.२.४ ) #मुण्डकोपनिषद् #mundakopanishad #उपनिषद #उपनिषद #ब्रह्मा #वह #him
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Author Harsh Ranjan

लोकतंत्र में राम का मखौल नहीं, नेताओं की आलोचना ईशनिंदा कहलाती है। ईश

ईश

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वेदों की दिशा

।।ॐ।।

अ॒न्धन्तमः॒ प्र वि॑शन्ति॒ येऽस॑म्भूतिमु॒पास॑ते। 
ततो॒ भूय॑ऽइव॒ ते तमो॒ यऽउ॒ सम्भू॑त्या र॒ताः ॥९ ॥

पद पाठ

अ॒न्धम्। तमः॑। प्र। वि॒श॒न्ति॒। ये। अस॑म्भूति॒मित्यस॑म्ऽभूतिम्। उ॒पास॑त॒ इत्यु॑प॒ऽआस॑ते ॥ ततः॑। भूय॑ऽइ॒वेति॒ भूयः॑ऽइव। ते। तमः॑। ये। ऊँ॒ऽइत्यूँ॑। सम्भू॑त्या॒मिति॒ सम्ऽभू॑त्या॒म्। र॒ताः ॥९ ॥

(ये) जो लोग परमेश्वर को छोड़कर (असम्भूतिम्) अनादि अनुत्पन्न सत्व, रज और तमोगुणमय प्रकृतिरूप जड़ वस्तु को (उपासते) उपास्यभाव से जानते हैं, वे (अन्धम्, तमः) आवरण करनेवाले अन्धकार को (प्रविशन्ति) अच्छे प्रकार प्राप्त होते और (ये) जो (सम्भूत्याम्) महत्तत्त्वादि स्वरूप से परिणाम को प्राप्त हुई सृष्टि में (रताः) रमण करते हैं (ते) वे (उ) वितर्क के साथ (ततः) उससे (भूय इव) अधिक जैसे वैसे (तमः) अविद्यारूप अन्धकार को प्राप्त होते हैं ॥

(These) Those who know God (Asambhuti) except the infinitely unintelligible entity, Raja and Tamogunamya, the root object of nature (Upasate), they (Andam, Tama), the covering darkness (the entry) will get well and (these)  ) Those who achieve the result of the (Sambhutyam) Mahātattvādī form (Rātāh) in the creation (Ram): They (U) with vitarka (s) (more) than (the earth) are more like (Tama) in the dark darkness.  
 
ईशोपनिषद मंत्र ९ #उपनिषद #ईशोपनिषद
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वेदों की दिशा

।। ॐ ।।

तस्माद्वा एते देवा अतितरामिवान्यान्देवान्यदग्निर्वायुरिन्द्रस्ते ह्येनन्नेदिष्ठं पस्पर्शुस्ते ह्येनत्प्रथमो विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥

केनोपनिषद चतुर्थ खण्ड मंत्र २ #केनोपनिषद #उपनिषद
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वेदों की दिशा

।। ॐ ।।

प्रतिबोधविदितं मतममृतत्वं हि विन्दते।
आत्मना विन्दते वीर्यं विद्यया विन्दतेऽमृतम्‌ ॥

जब यह ऐसे प्रत्यक्ष बोध के द्वारा जाना जाता है जो ‘इसे’ प्रतिबिम्बित करता है, तभी व्यक्ति 'इसका’ विचार बना पाता है, क्योंकि उससे व्यक्ति को अमृतत्व की उपलब्धि होती है; उपलब्धि के लिए व्यक्ति को आत्मा से वीर्य (शक्ति) प्राप्त होता है तथा विद्या से अमृतत्व की प्राप्ति होती है।

When It is known by perception that reflects It, then one has the thought of It, for one finds immortality; by the self one finds the force to attain and by the knowledge one finds immortality.

केनोपनिषद द्वितीय खण्ड ४ #केनोपनिषद  #उपनिषद
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वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

यस्मिन्‌ द्यौः पृथिवी चान्तरिक्षमोतं मनः सह प्राणैश्च सर्वैः।
तमेवैकं जानथ आत्मानमन्या वाचो विमुञ्चथामृतस्यैष सेतुः ॥

'वह', जिसमें द्युलोक, पृथ्वी एवं अन्तरिक्ष, मन तथा प्राण की समस्त गलियां अन्तर्भूत हैं, ओत-प्रोत हैं, 'उसको' तुम एकमेव 'आत्मरूप' जानो; इससे भिन्न अन्य वचनों का सर्वथा त्याग कर दो, यही है अमृत का सेतु।

He in whom are inwoven heaven and earth and the midregion, and mind with all the life currents, Him know to be the one Self; other words put away from you: this is the bridge to immortality.

( मुंडकोपनिषद २.२.५ ) #मुण्डकोपनिषद #उपनिषद
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Rajesh Singh Rajput

तुम पर  इश्क़ लिखा पाना कहा मुमकिन है...

इतने खूबसूरत तो लब्ज भी नहीं मेरे..!!

kize basu

©Rajesh Singh Rajput #ईश

#InternationalMensDay2020
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Akashdeep

बाल न बांका कर सके
कर सके ना कोई अपमान,
जिसके रक्षा स्वयं करते हो
पवन पुत्र हनुमान ।।

श्री राम जय राम जय जय राम।
श्री राम जय राम जय जय राम।
शुभ प्रभात आपका दिन मंगलमय हो
🌅🌅🌄🌅🌄🌅🌄🌅🌄 ईश आराधना

ईश आराधना

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वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुषः स बाह्याभ्यन्तरो ह्यजः।
अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात्‌ परतः परः ॥

वह दिव्य अमूर्त 'पुरुष', वही बाह्य तथा आन्तर (सत्य) है एवं वह 'अज' है; वह प्राणों से परे (अप्राण) एवं मन से परे (अमन) है, वह शुभ्र ज्योतिर्मय एवं अक्षर से भी परे 'परमात्मतत्त्व' है।

He, the divine, the formless Spirit, even he is the outward and the inward and he the Unborn; he is beyond life, beyond mind, luminous, Supreme beyond the immutable.

( मुंडकोपनिषद १.३.२ ) #मुण्डकोपनिषद #उपनिषद #अमूर्त
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वेदों की दिशा

।।ॐ।।
अने॑ज॒देकं॒ मन॑सो॒ जवी॑यो॒ नैन॑द्दे॒वाऽआ॑प्नुव॒न् पूर्व॒मर्ष॑त्। 
तद्धाव॑तो॒ऽन्यानत्ये॑ति॒ तिष्ठ॒त्तस्मि॑न्न॒पो मा॑त॒रिश्वा॑ दधाति ॥


ब्रह्म के अनन्त होने से जहाँ-जहाँ मन जाता है, वहाँ-वहाँ प्रथम से ही अभिव्याप्त पहिले से ही स्थिर ब्रह्म वर्त्तमान है, उसका विज्ञान शुद्ध मन से होता है, चक्षु आदि इन्द्रियों और अविद्वानों से देखने योग्य नहीं है। वह आप निश्चल हुआ सब जीवों को नियम से चलाता और धारण करता है। उसके अतिसूक्ष्म इन्द्रियगम्य न होने के कारण धर्मात्मा, विद्वान्, योगी को ही उसका साक्षात् ज्ञान होता है, अन्य को नहीं ॥

Wherever the mind goes from the eternal existence of Brahma, there is an already stable Brahm present in the first place, its science is done with a pure mind, the eye is not observable with senses and blinders. He has set himself up and governs all creatures by the law. Because of his not being very subtle sensible, only God, scholar and yogi get to know about him and not others.

ईशोपनिषद मंत्र 4 #ईशोपनिषद
#उपनिषद
#ब्रह्म
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वेदों की दिशा

।।ॐ।।

यस्मि॒न्त्सर्वा॑णि भू॒तान्या॒त्मैवाभू॑द्विजान॒तः।
 तत्र॒ को मोहः॒ कः शोक॑ऽएकत्वम॑नु॒पश्य॑तः ॥

पद पाठ

यस्मि॑न्। सर्वा॑णि। भू॒तानि॑। आ॒त्मा। ए॒व। अभू॑त्। वि॒जा॒न॒त इति॑ विऽजान॒तः ॥ तत्र॑। कः। मोहः॑। कः। शोकः॑। ए॒क॒त्वमित्ये॑क॒ऽत्वम्। अ॒नु॒पश्य॑त॒ऽइत्य॑नु॒पश्य॑तः ॥



हे मनुष्यो ! (यस्मिन्) जिस परमात्मा, ज्ञान, विज्ञान वा धर्म में (विजानतः) विशेषकर ध्यानदृष्टि से देखते हुए को (सर्वाणि) सब (भूतानि) प्राणीमात्र (आत्मा, एव) अपने तुल्य ही सुख-दुःखवाले (अभूत्) होते हैं, (तत्र) उस परमात्मा आदि में (एकत्वम्) अद्वितीय भाव को (अनुपश्यतः) अनुकूल योगाभ्यास से साक्षात् देखते हुए योगिजन को (कः) कौन (मोहः) मूढावस्था और (कः) कौन (शोकः) शोक वा क्लेश होता है अर्थात् कुछ भी नहीं ॥

Hey human  (Yasmine) Looking at the divine, knowledge, science or religion (triumphantly) especially (with attention), all (ghostly) beings (ghosts) are mere (soul, and) just like themselves (unhappy), (tatra) that  Seeing the (ekatvam) unique feeling in the divine etc. (inappropriately), with a favorable yoga practice, Yogijan has (a) who (moh), stupor and (a) who (mourn) mourn or affliction means nothing.

ईशोपनिषद मंत्र ८ #ईशोपनिषद #उपनिषद #Upnishad
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वेदों की दिशा

।। ॐ।।
अ॒न्यदे॒वाहुः स॑म्भ॒वाद॒न्यदा॑हु॒रस॑म्भवात्। 
         इति॑ शुश्रुम॒ धीरा॑णां॒ ये न॒स्तद्वि॑चचक्षि॒रे ॥१० ॥

पद पाठ

अ॒न्यत्। ए॒व। आ॒हुः। स॒म्भ॒वादिति॑ सम्ऽभ॒वात्। अ॒न्यत्। आ॒हुः। अस॑म्भवा॒दित्यस॑म्ऽभवात् ॥ इति॑। शु॒श्रु॒म॒। धीरा॑णाम्। ये। नः॒। तत्। वि॒च॒च॒क्षि॒र इति॑ विऽचचक्षि॒रे ॥


हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (धीराणाम्) मेधावी योगी विद्वानों से जो वचन (शुश्रुम) सुनते हैं (ये) जो वे लोग (नः) हमारे प्रति (तत्) (विचचक्षिरे) व्याख्यानपूर्वक कहते हैं, वे लोग (सम्भवात्) संयोगजन्य कार्य्य से (अन्यत्, एव) और ही कार्य्य वा फल (आहुः) कहते (असम्भवात्) उत्पन्न नहीं होनेवाले कारण से (अन्यत्) और (आहुः) कहते हैं, (इति) इस बात को तुम भी सुनो ॥

Hey man  Just like we (dhiramanam) hear the words (shushrum) from the meritorious yogi scholars (these) who they (nah) say to us (tatha) (vichchakshire), they (sambhavat) from coincidental work (otherwise, and  ) And the work or fruit (ahuah) says (unambiguously), for reasons that do not arise (otherwise) and (ahuah) says, (Iti) you listen to this thing also
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ईशोपनिषद मंत्र १० #ईशोपनिषद #उपनिषद #मनुष्य
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वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

यः सर्वज्ञः सर्वविद्‌ यस्यैष महिमा भुवि।
दिव्ये ब्रह्मपुरे ह्येष व्योम्न्यात्मा प्रतिष्ठितः ॥

जो 'सर्वज्ञ' है 'सर्वविद्' है जिसकी पृथ्वी पर यह सब महिमा है यह 'आत्मा' ही है जो इस दिव्य ब्रह्मपुरी में, इस व्योम में प्रतिष्ठित है।

The Omniscient, the All-wise, whose is this might and majesty upon the earth, is this self enthroned in the divine city of the Brahman, in his ethereal heaven.

( मुण्डकोपनिषद् २.२.७ ) #मुण्डकोपनिषद #उपनिषद #गुरु
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वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

अग्नीर्मूर्धा चक्षुषी चन्द्रसूर्यौ दिशः श्रोत्रे वाग्‌ विवृताश्च वेदाः।
वायुः प्राणो हृदयं विश्वमस्य पद्‌भ्यां पृथिवी ह्येष सर्वभूतान्तरात्मा ॥

अग्नि 'उसका' मस्तक (मूर्धा) है, चन्द्रमा तथा सूर्य उसके नेत्र हैं, दिशाएँ उसकी श्रवणेन्द्रियाँ (श्रोत्र) हैं तथा प्रकट हुए वेद उसकी वाणी हैं, वायु उसका प्राण है, विश्व उसका हृदय है, उसके चरणों में पृथ्वी आसीन है, 'वह' समस्त उद्भूत सत्ताओं का 'अन्तरात्मा' है।

Fire is the head of Him and his eyes are the Sun and Moon, the quarters his organs of hearing and the revealed Vedas are his voice, air is his breath, the universe is his heart, Earth lies at his feet. He is the inner Self in all beings.

( मुंडकोपनिषद २.१.४ ) #मुण्डकोपनिषद #उपनिषद #mundak_upnishad
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वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

तस्मादृचः साम यजूंषि दीक्षा यज्ञाश्च सर्वे क्रतवो दक्षिणाश्च।
संवत्सरश्च यजमानश्च लोकाः सोमो यत्र पवते यत्र सूर्यः ॥

उसी 'परमात्म-तत्त्व' से ऋग्वेद की, सामवेद तथा यजुर्वेद की ऋचाएँ तथा मन्त्रगान हैं, दीक्षाएँ, समस्त यज्ञ तथा योग-कर्म और दान-दक्षिणाएँ हैं, उसी से संवत्सर हैं, यजमान हैं, लोक-लोकान्तर हैं जिनमें चन्द्रमा तथा सूर्य प्रकाश फैलाते हैं।

From Him are the hymns of the Rig Veda, the Sama and the Yajur, initiation, and all sacrifices and works of sacrifice, and dues given, the year and the giver of the sacrifice and the worlds, on which the moon shines and the sun.

( मुंडकोपनिषद २.१.५ ) #मुण्डकोपनिषद #उपनिषद #परमात्म
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वेदों की दिशा

।।ॐ।।
अने॑ज॒देकं॒ मन॑सो॒ जवी॑यो॒ नैन॑द्दे॒वाऽआ॑प्नुव॒न् पूर्व॒मर्ष॑त्। 
तद्धाव॑तो॒ऽन्यानत्ये॑ति॒ तिष्ठ॒त्तस्मि॑न्न॒पो मा॑त॒रिश्वा॑ दधाति ॥


ब्रह्म के अनन्त होने से जहाँ-जहाँ मन जाता है, वहाँ-वहाँ प्रथम से ही अभिव्याप्त पहिले से ही स्थिर ब्रह्म वर्त्तमान है, उसका विज्ञान शुद्ध मन से होता है, चक्षु आदि इन्द्रियों और अविद्वानों से देखने योग्य नहीं है। वह आप निश्चल हुआ सब जीवों को नियम से चलाता और धारण करता है। उसके अतिसूक्ष्म इन्द्रियगम्य न होने के कारण धर्मात्मा, विद्वान्, योगी को ही उसका साक्षात् ज्ञान होता है, अन्य को नहीं ॥

Wherever the mind goes from the eternal existence of Brahma, there is an already stable Brahm present in the first place, its science is done with a pure mind, the eye is not observable with senses and blinders. He has set himself up and governs all creatures by the law. Because of his not being very subtle sensible, only God, scholar and yogi get to know about him and not others.

ईशोपनिषद मंत्र 4 #ईशोपनिषद
#उपनिषद
#ब्रह्म
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वेदों की दिशा

।। ॐ ।।

तेऽग्निमब्रुवन् जातवेद एतद्विजानीहि किमेतद्यक्षमिति तथेति ॥

उन्होने अग्निदेव से कहा, ''हे समस्त उद्भवों को जानने वाले देव (जातवेदा)! इस विषय में जानकारी प्राप्त करो कि यह बलशाली यक्ष क्या है?” अग्निदेव ने कहा, ''तथा इति” (मैं वैसा ही करूंगा)।

They said to Agni, “O thou that knowest all things born, learn of this thing, what may be this mighty Daemon,” and he said, “So be it.”

केनोपनिषद तृतीय खंड मंत्र ३ #केनोपनिषद #उपनिषद #अग्नि
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वेदों की दिशा

।। ॐ ।।

न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो
न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यात्।
अन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि।
इति शुश्रुम पूर्वेषां ये नस्तद्व्याचचक्षिरे ॥

वहाँ न चक्षु जा सकता है, न वाणी, न ही मन। हम न 'उसे’ जानते हैं न यह जान पाते हैं कि ‘उसकी’ शिक्षा कैसे दी जाये; क्योंकि 'वह' विदित से अन्य है; तथा अविदित से भी परे है; 'वह' ऐसा है यह हमने उन पूर्वजों से सुना है जिन्होंने उस 'परतत्त्व' की हमारे बोध के लिए व्याख्या की है।

There sight travels not, nor speech, nor the mind. We know It not nor can distinguish how one should teach of It: for It is other than the known; It is there above the unknown. It is so we have heard from men of old who declared That to our understanding.

केनोपनिषद मंत्र ३ #Art #केनोपनिषद #उपनिषद
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वेदों की दिशा

यजुर्वेद अध्याय ४० मंत्र संख्या ३

यह ईशोपनिषद का भी मंत्र ३ है


असुर्या नाम ते लोका ऽअन्धेन तमसावृताः ।
 ताम्̐स् ते प्रेत्यापि गच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः

अ॒सु॒र्य्याः᳕। नाम॑। ते। लो॒काः। अ॒न्धेन॑। तम॑सा। आवृ॑ता॒ इत्याऽवृ॑ताः ॥ तान्। ते। प्रेत्येति॒ प्रऽइ॑त्य। अपि॑। ग॒च्छ॒न्ति॒। ये। के। च॒। आ॒त्म॒हन॒ इत्या॑त्म॒ऽहनः॑। जनाः॑ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (लोकाः) देखनेवाले लोग (अन्धेन) अन्धकाररूप (तमसा) ज्ञान का आवरण करनेहारे अज्ञान से (आवृताः) सब ओर से ढँपे हुए (च) और (ये) जो (के) कोई (आत्महनः) आत्मा के विरुद्व आचरण करनेहारे (जनाः) मनुष्य हैं (ते) वे (असुर्य्याः) अपने प्राणपोषण में तत्पर अविद्यादि दोषयुक्त लोगों के सम्बन्धी उनके पापकर्म करनेवाले (नाम) प्रसिद्ध में होते हैं (ते) वे (प्रेत्य) मरने के पीछे (अपि) और जीते हुए भी (तान्) उन दुःख और अज्ञानरूप अन्धकार से युक्त भोगों को (गच्छन्ति) प्राप्त होते हैं 

Those who see (Lokaha) (blind) blindly (Tamsa) from the covering of knowledge (ignorance) are covered from all sides (f) and (these) who (k) someone (self-immolation) to conduct against the soul (Janaah)  Humans are (te) they (asuriyyah) in their life, their perpetrators (name) are famous in relation to those who are guilty, they are behind (death) and even live (s).  And indulgence with darkness in the form of ignorance (patrolling) is received. #वेद
#उपनिषद
#ज्ञान
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वेदों की दिशा

यजुर्वेद अध्याय ४० मंत्र ४

यह ईशोपनिषद का भी मंत्र ४ है

अने॑ज॒देकं॒ मन॑सो॒ जवी॑यो॒ नैन॑द्दे॒वाऽआ॑प्नुव॒न् पूर्व॒मर्ष॑त्। तद्धाव॑तो॒ऽन्यानत्ये॑ति॒ तिष्ठ॒त्तस्मि॑न्न॒पो मा॑त॒रिश्वा॑ दधाति 

पद पाठ
अने॑जत्। एक॑म्। मन॑सः। जवी॑यः। न। ए॒न॒त्। दे॒वाः। आ॒प्नु॒व॒न्। पूर्व॑म्। अर्ष॑त् ॥ तत्। धाव॑तः। अ॒न्यान्। अति॑। ए॒ति॒। तिष्ठ॑त्। तस्मि॑न्। अ॒पः। मा॒त॒रिश्वा॑। द॒धा॒ति॒ ॥

विद्वान् मनुष्यो ! जो (एकम्) अद्वितीय (अनेजत्) नहीं कम्पनेवाला अर्थात् अचल अपनी अवस्था से हटना कम्पन कहाता है, उससे रहित (मनसः) मन के वेग से भी (जवीयः) अति वेगवान् (पूर्वम्) सबसे आगे (अर्षत्) चलता हुआ अर्थात् जहाँ कोई चलकर जावे, वहाँ प्रथम ही सर्वत्र व्याप्ति से पहुँचता हुआ ब्रह्म है (एनत्) इस पूर्वोक्त ईश्वर को (देवाः) चक्षु आदि इन्द्रिय (न) नहीं (आप्नुवन्) प्राप्त होते (तत्) वह परब्रह्म अपने-आप (तिष्ठत्) स्थिर हुआ अपनी अनन्त व्याप्ति से (धावतः) विषयों की ओर गिरते हुए (अन्यान्) आत्मा के स्वरूप से विलक्षण मन, वाणी आदि इन्द्रियों का (अति, एति) उल्लङ्घन कर जाता है, (तस्मिन्) उस सर्वत्र अभिव्याप्त ईश्वर की स्थिरता में (मातरिश्वा) अन्तरिक्ष में प्राणों को धारण करनेहारे वायु के तुल्य जीव (अपः) कर्म वा क्रिया को (दधाति) धारण करता है, यह जानो ॥४ ॥

Learned men & women !  One who is not (ek) unique (unaware), that is called vibrating, ie moving away from its own state, devoid of it (manas:) is moving even at the speed of the mind (jāvīःah).  , There is Brahma reaching from the first place everywhere (nt) this aforesaid god (devah), the eye is not attained (n), not (appanuvan).  Falling towards the (objectively) subjects (other) by the nature of the soul, the eccentric mind, speech, etc. transcend the senses (excess, eti), (Tasmin) in the stability of that ubiquitous God (Matrishva) holding the soul in space.  Like the wind that carries the body (Apah), it carries the action or action (Dadhati), know that #वेद
#उपनिषद
#ज्ञान
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वेदों की दिशा

।। ओ३ म् ।।

उपनिषदं भो ब्रूहीत्युक्ता त उपनिषद् ब्राह्मीं वाव त उपनिषदमब्रूमेति ॥

तुमने कहा-''उपनिषद्६ का प्रवचन कीजिये''; तुम्हारे लिए उपनिषद् का प्रवचन कर दिया है। निश्चित रूप से यह ब्राह्मी (ब्रह्मज्ञान सम्बन्धी) उपनिषद् है जिसका हमने उपदेश दिया है। ६उपनिषद् का तात्पर्य है अन्तरज्ञान, वह ज्ञान जो परम सत्य में प्रवेश करता है और उसमें प्रतिष्ठित हो जाता है।

Thou hast said “Speak to me Upanishad”; spoken to thee is Upanishad. Of the Eternal verily is the Upanishad that we have spoken.

केनोपनिषद चतुर्थ खंड मंत्र ७ #केनोपनिषद #उपनिषद #ब्रह्मज्ञान
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वेदों की दिशा

।।ॐ।।

यस्मि॒न्त्सर्वा॑णि भू॒तान्या॒त्मैवाभू॑द्विजान॒तः।
 तत्र॒ को मोहः॒ कः शोक॑ऽएकत्वम॑नु॒पश्य॑तः ॥


जो विद्वान् संन्यासी लोग परमात्मा के सहचारी प्राणीमात्र को अपने आत्मा के तुल्य जानते हैं अर्थात् जैसे अपना हित चाहते वैसे ही अन्यों में भी वर्त्तते हैं, एक अद्वितीय परमेश्वर के शरण को प्राप्त होते हैं, उनको मोह, शोक और लोभादि कदाचित् प्राप्त नहीं होते। और जो लोग अपने आत्मा को यथावत् जान कर परमात्मा को जानते हैं, वे सदा सुखी होते हैं ॥७ ॥


Those scholarly ascetics who know God's fellow-beings as equal to their souls, ie, who wish for their own interests, likewise turn to others, receive the refuge of a unique God, may not find attachment, grief and covetousness. And those who know God by knowing their soul as they are, they are always happy.

ईशोपनिषद मंत्र ७ #ईशोपनिषद
#उपनिषद
#God
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वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

तमेकनेमिं त्रिवृतं षोडशान्तं शतार्धारं विंशतिप्रत्यराभिः।
अष्टकैः षड्भिर्विश्वरूपैकपाशं त्रिमार्गभेदं द्विनिमित्तैकमोहम्‌॥

ऋषियों ने एक चक्र या पहिया देखा जिसमें एक नेमि है, तीन वृत्त हैं, सोलह सिरे या अन्त-भाग हैं, पचास अरें हैं, बीस प्रत्यरे हैं, छः अष्टक हैं, भिन्न-भिन्न रूपों का एक पाश है जिसके द्वारा तीन भिन्न-भिन्न मार्गों पर वह चालित होता है तथा उसके मोह के दो निमित्त हैं।

The sages saw the wheel of Brahman, which has one felly, a triple tire, sixteen end-parts, fifty spokes with twenty counter-spokes and six sets of eight; which is driven along three different roads by means of a belt that is single yet manifold; and whose illusion arises from two causes.

( श्वेताश्वतरोपनिषद् १.४ ) #श्वेताश्वतरोपनिषद् #उपनिषद #ब्रह्म #चक्र
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वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

पुरुष एवेदं विश्वं कर्म तपो ब्रह्म परामृतम्‌।
एतद्यो वेद निहितं गुहायां सोऽविद्याग्रन्थिं विकिरतीह सोम्य ॥

यह 'पुरुष-तत्त्व' ही सम्पूर्ण विश्व है; 'वही' कर्म है, 'वही' तप है तथा 'वही' परम तथा अमृतरूप 'ब्रह्म' है। हे सौम्य, जो हृद्गुहा में निहित इस तत्त्व को जानता है वह यहीं, इसी लोक में अविद्या-ग्रन्थि का उच्छेदन कर देता है।

The Spirit is all this universe; He is works and askesis and the Brahman, supreme and immortal. O fair son, he who knows this hidden in the secret heart, scatters even here in this world the knot of the Ignorance.

मुंडकोपनिषद २.१.१० #मुण्डकोपनिषद #उपनिषद #पुरुष #ईश्वर
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वेदों की दिशा

।। ॐ ।।
अ॒न्यदे॒वाहुर्वि॒द्याया॑ऽअ॒न्यदा॑हु॒रवि॑द्यायाः।
 इति॑ शुश्रुम॒ धीरा॑णां॒ ये न॒स्तद्वि॑चचक्षि॒रे ॥१३ ॥

पद पाठ

अ॒न्यत्। ए॒व। आ॒हुः। वि॒द्यायाः॑। अ॒न्यत्। आ॒हुः॒। अवि॑द्यायाः ॥ इति॑। शु॒श्रु॒म॒। धीरा॑णाम्। ये। नः॒। तत्। वि॒च॒च॒क्षि॒रे इति॑ विऽचचक्षि॒रे ॥

हे मनुष्यो ! (ये) जो विद्वान् लोग (नः) हमारे लिये (विचचक्षिरे) व्याख्यापूर्वक कहते थे (विद्यायाः) पूर्वोक्त विद्या का (अन्यत्) अन्य ही कार्य वा फल (आहुः) कहते थे (अविद्यायाः) पूर्व मन्त्र से प्रतिपादन की अविद्या का (अन्यत्, एव) अन्य फल (आहुः) कहते हैं (इति) इस प्रकार उन (धीराणाम्) आत्मज्ञानी विद्वानों से (तत्) उस वचन को हम लोग (शुश्रुम) सुनते थे, ऐसा जानो ॥

Hey human  (These) those scholars who (nah) used to say (vichchakshire) for us (vidyakya), (other) of the aforesaid vidya (other), they used to say (avidya:) of the ignorance of rendering from the former mantra (other, and  ) Other fruits (ahuah) say (iti) that is how we (Shushrum) used to hear (that) from those (slow-witted) wise scholars.

ईशोपनिषद मंत्र १३ #ईशोपनिषद #उपनिषद #यजुर्वेद #विद्वान
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वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

सप्त प्राणाः प्रभवन्ति तस्मात्‌ सप्तार्चिषः समिधः सप्त होमाः।
सप्त इमे लोका येषु चरन्ति प्राणा गुहाशया निहिताः सप्त सप्त ॥

उसी' से सप्त प्राणों का जन्म हुआ है, सप्त ज्वालाएँ, विभिन्न समिधाएँ सप्त होम तथा ये सन्त लोक जिनमें प्राण हृदय-गुहा को अपना बना कर विचरण करते हैं, 'उसी' से उत्पन्न हैं; सभी सात-सात के समूहों में हैं।

The seven breaths are born from Him and the seven lights and kinds of fuel and the seven oblations and these seven worlds in which move the lifebreaths set within with the secret heart for their dwellingplace, seven and seven.

( मुंडकोपानिषद २.१.८ ) #मुण्डकोपनिषद #उपनिषद #मंत्र #सप्त
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वेदों की दिशा

।। ओ३म् ।।

तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्यक्‌ प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय।
येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यं प्रोवाच तां तत्त्वतो ब्रह्मविद्याम्‌ ॥

उसके प्रति जो पूर्णरूप से शरण में आ गया है, जो शान्तचित्त हो गया है, जिसकी आत्मा में शान्ति विराजती है, विद्वान् उस ब्रह्मविद्या का तत्त्वतः प्रवचन करता है जिससे 'अक्षर पुरुष' को, 'परमसत्य' तथा 'सत्तत्त्व' को जाना जाता है।

To him because he has taken entire refuge with him, with a heart tranquillised and a spirit at peace, that man of knowledge declares in its principles the science of the Brahman by which one comes to know the Immutable Spirit, the True and Real.

( मुंडकोपनिषद १.२.१३ ) #मुण्डकोपनिषद #उपनिषद #ब्रह्मा #गुरु
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