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Sarfaraj idrishi
ये नायाब इमारते सच हैं...........कोई ख़्वाब नहीं.. मुग़लों की तामीरकरदा इमारतों का कोई जवाब नहीं, आज दावा करते है वो कमज़र्फ.. की ये इमारतें उनके पुरखों की है जिनकी इन्हें देखने का टिकट खरीदने की भी औकात नहीं.... ©Sarfaraj idrishi #ThanksMughals ये नायाब इमारते सच हैं...........कोई ख़्वाब नहीं.. मुग़लों की तामीरकरदा इमारतों का कोई जवाब नहीं, आज दावा करते है वो कमज़र्
अरफ़ान भोपाली
अब माटी की महक नही आती दिल्ली की फ़िज़ा में हर तरफ इमारतों का जाल बिछा है दिल्ली की धरा में कैसे लेंगे हमारे बच्चे सांस यहाँ दिल्ली की हवा में जहाँ ज़हर घुला हुआ है धुँवा धुँवा दिल्ली की हवा में गंदगी का ढेर लगा है गंदगी में ही इंसान पल रहा है ज़िंदा रहा इंसान तो शायद सुधर जाए दिल्ली की धरा में अब माटी की महक नही आती दिल्ली की फ़िज़ा में हर तरफ इमारतों का जाल बिछा है दिल्ली की धरा में कैसे लेंगे हमारे बच्चे सांस यहाँ दिल्ली
PS T
सड़क के ऊपर सड़क बनाकर हमारे घर दुकान जमीन में धँसा कर विकास पर विकास किए जा रहे हैं अपना बिल पास किए जा रहे हैं । सरकारी तंत्र सड़क बनाता है और तोड़ता है और बनाता है, इस तोड़ने बनाने में हमारे घर दुकान इमारतों का हिस्सा जमीन में चला जाता है क्योंकि हर बार स
Drg
नियमानुसार आज भी वो आया था; और जोड़ गया मेरा मन कई सवालों के साथ। कल्पना के सागर में गोते लगाते लगाते, सवालों के उत्तर ढूँढते ढूँढते, मैं अन्य सवालों के जंजाल में झूझ गई। अंततः यादों ने अपना पिटारा खोल दिया! हमारे जीवन में, कई यादें, बस उस कबूतर जैसी हैं। अनूठी नहीं, पर नियम सी हैं। प्रतिदिन दस्तक देती हैं।मन को विचलित कर, उड़ जाती हैं। कुछ जानती हैं, समझती हैं, कुछ इशारा करती हैं.. कोई एहसास नहीं जगाती, बस छोड़ जाती हैं कुछ अधूरी उलझाती पहेलियाँ.. (अनुशीर्षक में पढ़े) प्रतिदिन सवेरे ६.३०-७.०० के आस पास, अलार्म से झूझकर, मैं अक्सर पलट कर बालकनी की ओर मुँह फेर कर, लेटी रहती हूँ। सर्दियों में तो कंबल के बाह
Drg
नियमानुसार आज भी वो आया था; और जोड़ गया मेरा मन कई सवालों के साथ। कल्पना के सागर में गोते लगाते लगाते, सवालों के उत्तर ढूँढते ढूँढते, मैं अन्य सवालों के जंजाल में झूझ गई। अंततः यादों ने अपना पिटारा खोल दिया! हमारे जीवन में, कई यादें, बस उस कबूतर जैसी हैं। अनूठी नहीं, पर नियम सी हैं। प्रतिदिन दस्तक देती हैं।मन को विचलित कर, उड़ जाती हैं। कुछ जानती हैं, समझती हैं, कुछ इशारा करती हैं.. कोई एहसास नहीं जगाती, बस छोड़ जाती हैं कुछ अधूरी उलझाती पहेलियाँ.. (अनुशीर्षक में पढ़े) प्रतिदिन सवेरे ६.३०-७.०० के आस पास, अलार्म से झूझकर, मैं अक्सर पलट कर बालकनी की ओर मुँह फेर कर, लेटी रहती हूँ। सर्दियों में तो कंबल के बाह
Avinash Jain
इबादतों,इनायतों और “बरकतों” का, माह ए रमज़ान मुबारक हो. इबादतों,इनायतों और “बरकतों” का, माह ए रमज़ान मुबारक हो.
DR. LAVKESH GANDHI
मेरा शहर बड़ा बदनाम है मेरा शहर गगनचुंबी इमारतें हैं मेरे शहर में मगर छोटे दिल वाले लोग रहते हैं यहाँ यहाँ नहीं है कोई किसी का सिर्फ कमाने में लगे रहते हैं लोग यहाँ किसी को किसी से नहीं कोई वास्ता ©DR. LAVKESH GANDHI #merasheher # #ईमारतों का शहर #
Abhi Sahjlan
अकसर ढह जाती हैं वे महोब्बत की इमारतें साहब जिनकी नीव विश्वास से नहीं भरी होती .. #इमारतें