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सिद्धार्थ मिश्र स्वतंत्र
PANKAJ KUMAR SINGH
नफ़रत का जन्म प्रेम और नफ़रत एक साथ नहीं रहते हैं प्रेम के मरने के बाद ही जन्म लेती है नफ़रत जो ध्वस्त कर देती है प्रेम के बनाए हर चीज को और फैल जाती है हर तरफ। नफ़रत एक आग है जो तुरंत फैल जाती है और जला देती है हर चीज को चाहे वह कोई शहर हो, देश हो या हो इंसानियत। इस आग को बुझाना आसान नहीं होता है इसलिए लोग रोटियाँ सेंकने लगते हैं। नफ़रतों के शहर में अब प्रेम का दम घुटने लगा है कहीं प्रेम तड़प-तड़प कर मर न जाए इसलिए, हे कृष्ण! अब तुम्हें आना ही पड़ेगा महाभारत कराने के लिए नहीं बल्कि, प्रेम कराने के लिए इतना प्रेम की नफ़रत के बीज का कहीं अंकुरण भी न हो। ✍पंकज कुमार सिंह। मेरी नयी कविता
Kumar Dilip Hiragar
हमसफर की चाहत ने मंजिल ही खो दी हम उन्हें ढुंढते रहे और वो मंजिल को पा गये -Kumar Dilip कविता के अंश
Pushpvritiya
अरसो तलक यूं हीं भटका किए हम, गले से लगा लो मरने से पहले........... @पुष्पवृतियां . . ©Pushpvritiya कविता के अंश
Unknown
बरफ भरल पहाड़न से पाथरन के कछारन से ताल तलैया पोखरन से पहाड़न के चीरत फाड़त सोता झरना बन निकललीं मीठगर रसगर सभै के पिआस बुझइलीं जंगरवा खेतन के हरिअर कइलीं भूईंया के सूखल दरारन के भरलीं कबहुँ पतझर कबहुँ सावन कबहुँ बसंत कबहुँ बहार भइलीं सभै के पापन तारत आपन में समेटलीं सभै के जिनगी नीमन खुसहाल करलीं आखिर में लहर दर लहर टूटत गयलीं आपन अस्तित्व खो तहरा में जा समइलीं तहरा में समइते तीखार खारा हो गयलीं तु अथाह पानी के लेहले समुंदर कहलइलS बकिया आरंभ से अंत तक खारा ही रहलS इहे हौ नदी आ समुंदर के जीवन गाथा आरंभ कहीं से पर अंत हौ सागर माथा नदी के गाथा
M Sunil samrat
हम नदी के दो किनारे एक तुम हो दुजा संग हमारे मिलन की आस में धरा के छोर तक चलेंगे, तुम होगी सामने हमारे और मैं सामने तुम्हारे मिट्टी का एक ढेला उस किनारे से घोलो और बढ़ने दो नदी का आवेग थोड़ा, ताकि घुलकर मिट्टी आये नदी के इस छोर तक मैं हथेलियों में सजा उसे माथे से अपने लगा लूँ। मैं नदी के हाँथ भेजूँ घास का हरा तिनका लेकिन, प्रवाह प्रचंड धकेले इसे मेरे ही छोर पर निराश ना हो, नदी सौंपेगी इसको तुमको तुम्हारे छोर पर उठा तिनके को तुम अपने जुड़े में सजा लो। हम मिलते रहेंगे यूँही समय अनंत तक नदी के आदि से और नदी के अंत तक, तुम्हारे किनारे के मिट्टी को नदी में घुल जाने तक धारा के खोने औ तिनकों के सुख जाने तक । चाह सागर में मिलन की बिल्कुल ही व्यर्थ है, क्योंकि न होगी नदी, न वो घुली मिट्टी, ना ही होगी कोई धारा ना होंगे किनारे, न वो तिनके बेचारे औ अस्तित्व ना होगा हमारा चाह मेरी एक ही हम हों सदा यूँही किनारे तुम रहो सामने मेरे और मैं सामने तुम्हारे। ©M Sunil samrat नदी के किनारे
river_of_thoughts
Life is too short.. चल पड़ूं यूं ही या दिल-वो-कदम रहूं थाम कि होगी बहुत जल्दबाजी अभी या दम-ए-बाद-ए-सबा है बाक़ी अब भी ... ? साया-ए-जिस्म ही जानता है साया-ए-जिस्म को ही है खबर जेहन-वो-जिगर में मेरे बसा तू किस कदर। @manas_pratyay #Life@shadow #कविताई #कविता #कवितांश