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रजनीश "स्वच्छंद"
संस्कृति।। आदि से अनंत तक, डाकुओं से संत तक। मैं ही तेरा सार हूँ, कृष्ण से कबीर पंथ तक। रौशन हुआ मैं जल रहा, कम्पित धरा में चल रहा। मैं विष्णु और महेश हूँ, ये जग है मुझमे पल रहा। विष पीये मैं नीलकंठ, मथुरा काशी धाम हूँ। कृष्ण की उदंडता हूँ, राम का प्रणाम हूँ। भीष्म का प्रण हूँ मैं, वृहद समर का रण हूँ मैं। तूणीर हूँ अर्जुन का मैं, दाउ भीम का घन हूँ मैं। मैं प्रलय, मैं शांत धार, विजेता का मैं कंठ हार। मैं दवानल मैं प्रबल, मैं वेदश्लोक मैं हूं सार। मैं वेद भी पुराण भी, मैं हूँ रथी सुजान भी। कृष्ण सा मैं सारथी, वाणी भी मैं कृपाण भी। मैं सीख हूँ, मैं ज्ञान हूँ, आधुनिक भी और पाषाण हूँ। मैं द्वंद्व द्वेष क्लेश हूँ, मैं ही विधि और त्राण हूँ। ©रजनीश "स्वछंद" संस्कृति।। आदि से अनंत तक, डाकुओं से संत तक। मैं ही तेरा सार हूँ, कृष्ण से कबीर पंथ तक। रौशन हुआ मैं जल रहा,
रजनीश "स्वच्छंद"
कलम भी बिकती है।। इतिहास गवाही देता है, यहां कलम भी बिकती है, बन दरबारी राजाओं के, सत्ता पर जा टिकती है। इतिहास के पन्ने पलट के देखो, सरेआम गवाही देते हैं। कर इतिहास वस्त्र विहीन, सत्त्ता से वाह वाही लेते हैं। कौन रहा निर्भीक यहां, किसने सच का दामन थामा था। एक पृष्ठ की उसकी कहानी, बना याचक वो सुदामा था। थे मुट्ठी भर दिनकर यहां, सत्ता को ललकारा था। संख्या थी अनगिन उनकी, सच से किया किनारा था। सरस्वती धूल फांक रही, लक्ष्मी का राज्याभिषेक हुआ। ज्ञान बना दरबारी बैठा, चापलूस सृजक प्रत्येक हुआ। हठी रहे कुछ लोग यहां, जो अलख जगाने निकले थे। सुन उनकी आवाज़ आर्द्र, कब सत्ता के मन पिघले थे। जब तक हवा में वेग न हो, कब दवानल धधकता है। जब हुंकार हुआ शब्दों में, ये बन तलवार चमकता है। क्यूँ आज रहे मूक बधिर, आओ मिल हम हुंकार करें। सुप्त रही जो शिथिल आत्मा, आ मिल उनका पुकार करें। कानों में गिरे ये वज्र बन, आ मिल शब्दों का भार बढ़ाते हैं। दीये की लौ है टिम टिम करती, एक मशाल हम यार जलाते हैं। बुझ जाए वो चूल्हा, सत्ता की रोटी जहां सिंकतीं है। इतिहास गवाही देता है, यहां कलम भी बिकती है, ©रजनीश "स्वछंद" कलम भी बिकती है।। इतिहास गवाही देता है, यहां कलम भी बिकती है, बन दरबारी राजाओं के, सत्ता पर जा टिकती है। इतिहास के पन्ने पलट के देखो, सरेआ
रजनीश "स्वच्छंद"
क्रोध।। ये गज मतवाला झूम रहा, लिए आंख लाल है घूम रहा। अपनी करनी पे डाल ये पर्दा, सर अपना बस धुन रहा। छः दोषों में एक दोष है, पतन कहो जो ये क्रोध है। आँख पे पट्टी डाल के बैठा, कहाँ चिंतन और कहाँ शोध है। क्रोध की अग्नि दवानल है, भष्म करे घरबार ये सारा। जगह मान की चिंता किसे फिर, घर हो या कोई चौवारा। पवृति असुर सी प्रबल हुई है, दांत बढ़े और सिंग है निकला। रिश्ते नाते उम्र कहाँ फिर, सूचित भाव हो इंग है फिसला। फ़नकाढे उन्माद था बैठा, वाणी विष से ओतप्रोत थी। आंखों पे आवरण एक था छाया, मन मे जलती बस अहं ज्योत थी। क्रोध जो बुद्धि हर लेता है, अविवेकी और विनाशी हुआ। शीतम वाणी और शुद्ध विचार, विलुप्त हुआ प्रवासी हुआ। उत्तेजित लहु का कण कण था, पर राह चुनी जो अनुचित थी। जो कदम बढ़े एक बार किसीके, विध्वंस धार वो समुचित थी। जब शांत हुई ये ज्वाला थी, चर चुकी थी चिड़िया खेत रही। सब धार जो मुट्ठी भिंची थी, मानवता तो सरकती रेत रही। परिणामों की तुम शोध करो, इससे पहले कि क्रोध करो। तमगुणों का तुम प्रतिरोध करो, तुम मानव हो इतना बोध करो। ©रजनीश "स्वछंद" क्रोध।। ये गज मतवाला झूम रहा, लिए आंख लाल है घूम रहा। अपनी करनी पे डाल ये पर्दा, सर अपना बस धुन रहा। छः दोषों में एक दोष है,
रजनीश "स्वच्छंद"
मैं लिखता हूँ।। बातें सबकी मैं लिखता हूँ, सच के सम्मुख मैं टिकता हूँ। कभी बंधा मैं पन्नों में, फिर सरेआम मैं बिकता हूँ। कभी विरल तो कभी सघन, भाव मैं सिंचित करता हूँ। हो दरबारी राजभवन में, ना मैं किंचित रहता हूँ। आदि अनन्त दुर्लभ भी कभी, कभी तुतलाता बालक हूँ। मां की ममता में लोट लोट, पीछे चलता एक शावक हूँ। मील का पत्थर बनूँ कभी, पथद्रष्टा मूक बधिर रहा। दवानल बन कभी उमड़ता, कभी मैं शीतल क्षीर रहा। पाप पुण्य के महासमर में, मैं दोनों को भाता हूँ। रावण बन हरता सीता भी, कभी मैं लक्ष्मण भ्राता हूँ। तुम जो पाठक बन जाओ, मैं खड़ा तटस्थ अनुयायी हूँ। गर मैं तुमको छू न सका, कागज़ पर छिड़का स्याही हूँ। लज्जा भी कहुँ न लज्जित हूँ, मैं रक्त हुआ न रंजित हूँ। हृदय भाव मे ढलता हूँ, कभी समुचित कभी खण्डित हूँ। वीर पढ़ें और धीर पढ़ें, कुछ प्रश्न उठा मैं चलता हूँ। और कभी बना पागल प्रेमी, प्रियतमा की बांहों में गलता हूँ। बस गिने चुने ही अक्षर हैं, भाव अप्रतिम मैं गढ़ता हूँ। हाथ पकड़ मैं कभी सहायक, बन अन्तर्द्वन्द्व कभी मैं लड़ता हूँ। ईश की भी गाथा मुझमे, दानव का भी सरोकार रहा। कभी हूँ बनता कुरुक्षेत्र, मानवता का त्योहार रहा। कभी कोई गुणगान करे, कभी मुझमे ऐब निकाले हैं। ले दर्पण देखो निज को, चित-जड़ित कई कई ताले हैं। चलो विवेक की बात कहुँ, पार्श्व गीत एक गाता हूँ। जब खड़ी मानवता दो राहे पे, बन इतिहास मैं आता हूँ। ©रजनीश "स्वछंद" मैं लिखता हूँ।। बातें सबकी मैं लिखता हूँ, सच के सम्मुख मैं टिकता हूँ। कभी बंधा मैं पन्नों में, फिर सरेआम मैं बिकता हूँ। कभी विरल तो कभी सघ