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Mr. Chandan Kumar
N S Yadav GoldMine
{Bolo Ji Radhey Radhey} पाण्डव अपनी मां कुंती के साथ इधर से उधर भ्रमण कर रहे थे, वे ब्राह्मणों का वेश धारण किए हुए थे, भिक्षा मांगकर खाते थे और रात में वृक्ष के नीचे सो जाया करते थे, भाग्य और समय की यह कैसी अद्भुत लीला है। जो पांडव हस्तिनापुर राज्य के भागीदार हैं, और जो सारे जगत को अपनी मुट्ठी में करने में समर्थ हैं, उन्हीं को आज भिक्षा पर जीवन-यापन करना पड़ रहा है| दोपहर के बाद का समय था| पांडव अपनी मां कुंती के साथ वन के मार्ग से आगे बढ़ते जा रहे थे| सहसा उन्हें वेदव्यास जी दिखाई पड़े| कुंती दौड़कर वेदव्यास जी के चरणों में गिर पड़ी| उनके चरणों को पकड़कर बिलख- बिलख कर रोने लगी| उसने अपने आंसुओं से उनके चरणों को धोते हुए उन्हें अपनी पूरी कहानी सुना दी| वेदव्यास जी ने कुंती को धैर्य बंधाते हुए कहा, "आंसू बहाने से कुछ नहीं होगा| जो ऊपर पड़ा हैं, उसे धैर्य से सहन करो| जब अच्छे दिन आएंगे, फिर सब कुछ ठीक हो जाएगा| चलो, मेरे साथ चलो| मैं तुम्हें एक स्थान बताए दे रहा हूं| कुछ दिनों तक वहीं रहकर समय काटो|" वेदव्यास जी पांडवों को एक नगर में ले गए| उस नगर का नाम एकचक्रा था| आज के बिहार राज्य में, शाहाबाद जिले में आरा नामक एक बड़ा नगर है| महाभारत काल में आरा को ही एकचक्रा के नाम से पुकारा जाता था| उन दिनों एकचक्रा में केवल ब्राह्मण ही निवास करते थे| वेदव्यास जी पांडवों को एकचक्रा में पहुंचाकर चले गए| पांडव एक ब्राह्मण के घर में निवास करने लगे| पांचों भाई प्रतिदिन भिक्षा मांगने के लिए जाया करते थे| भिक्षा में जो अन्न मिलता था, उसी से अपने जीवन का निर्वाह करते थे| उन दिनों एकचक्रा में एक राक्षस के द्वारा बड़े जोरों का आतंक फैला हुआ था| उस राक्षस का नाम बक था| वह दिन में वन में छिपा रहता था| रात में बाहर निकलता था और एकचक्रा में घुस जाता था| जिसे भी पाता था, मार डालता था| खाता तो एक ही दो आदमी को था, पर पंद्रह-बीस आदमियों के प्राण रोज जाते थे| आखिर एकचक्रा के निवासियों ने बक से एक समझौता किया - प्रतिदिन नगर का एक आदमी अपने आप ही बक के पास पहुंच जाया करेगा और बक उसे मारकर खा लिया करेगा| एक ही आदमी की जान जाएगी, व्यर्थ में मारे जाने वाले लोग बच जाया करेंगे| बक ने भी इस समझौते को स्वीकार कर लिया| उसे जब बैठे- बिठाए ही भोजन मिल जाता था, तो वह समझौते को स्वीकार न करता तो क्या करता? उसने समझौते को स्वीकार करते हुए चेतावनी दे रखी थी कि अगर समझौते का उल्लंघन किया गया तो वह एकचक्रा को उजाड़कर मिट्टी में मिला देगा| बस, उसी दिन से क्रम-क्रम से एक घर का एक आदमी बक के पास जाने लगा, बक उसे खाकर अपनी क्षुधाग्नि को शांत करने लगा| संयोग की बात, एक दिन उस ब्राह्मण के घर की बारी आ गई, जिसके घर में पांडव अपनी मां के साथ निवास करते थे| दोपहर के पूर्व का समय था| कुंती अपने कमरे में बैठी हुई थी| उस दिन भीम किसी कारणवश भिक्षा मांगने नहीं गया था| वह भी कमरे के भीतर, कुंती के पास ही मौजूद था| सहसा कुंती के कानों में किसी के रोने की आवाज आई रोने और विलाप करने का वह स्वर उस ब्राह्मण के कमरे से आ रहा था, जिसके घर में वह ठहरी हुई थी| जब कुंती से विलाप का यह सकरुण स्वर सुना नहीं गया, तो वह ब्राह्मण के कमरे में जा पहुंची| उसने वहां जो कुछ देखा उससे वह सन्नाटे में आ गई| ब्राह्मण के कुटुंब में कुल तीन ही प्राणी थे - ब्राह्मण-ब्राह्मणी और उसका एक युवा पुत्र| तीनों बिलख-बिलखकर रो रहे थे, "हाय, हाय, अब क्या होगा? अब तो सबकुछ मिट्टी में मिलकर रहेगा|" कुंती ने तीनों को रोता हुआ देखकर ब्राह्मण से पूछा, "विप्रवर, आप तीनों इस प्रकार क्यों रो रहे हैं? क्या मैं जान सकती हूं कि किस दारुण कष्ट ने आप तीनों को अत्यंत दुखी बना रखा है?" ब्राह्मण ने आंखों से आंसुओं की बूंदें गिराते हुए उत्तर दिया, "बहन, तुम सुनकर क्या करोगी? हमारा कष्ट एक ऐसा कष्ट है, जिसे कोई दूर नहीं कर सकता|" कुंती ने सहानुभूति भरे स्वर में कहा, "हम तो गरीब ब्राह्मण हैं| सच है, हम आपके कष्ट को दूर नहीं कर सकते, किंतु फिर भी सुनने में हर्ज ही क्या है? हो सकता है, हम आपके कुछ काम आ जाएं|" जब कुंती ने बहुत आग्रह किया तो ब्राह्मण ने बक राक्षस की पूरी कहानी उसे सुना दी| कहानी सुनाकर उसने सिसकते हुए कहा, "बहन ! हम कुल तीन ही प्राणी हैं| यदि कोई एक राक्षस के पास जाता है, तो वह उसे मारकर खा जाएगा| हमारा घर बरबाद हो जाएगा| इसलिए हम सोचते हैं कि हम तीनों ही राक्षस के पास चले जाएंगे| हम इसलिए रो रहे हैं, आज हम तीनों के जीवन का अंत हो जाएगा|" ब्राह्मण की करुण कथा सुनकर कुंती बड़ी दुखी हुई| वह मन ही मन कुछ क्षणों तक सोचती रही, फिर बोली, "विप्रवर ! मैं एक बात कहती हूं, उसे ध्यान से सुनिए| मेरे पांच पुत्र हैं| आज मैं अपने एक पुत्र को आपके कुटुंब की ओर से राक्षस के पास भेज दूंगी| यदि राक्षस मेरे पुत्र को खा जाएगा, तो भी मेरे चार पुत्र शेष रहेंगे|" कुंती की बात सुनकर ब्राह्मण स्तब्ध रह गया| उसने परोपकार में धन देने वालों की कहानियां तो बहुत सुनी थीं, पर पुत्र देने वाली बात आज उसने पहली बार सुनी| वह कुंती की ओर देखता हुआ बोला, "बहन, तुम तो कोई स्वर्ग की देवी ज्ञात हो रही हो| मुझे इस बात पर गर्व है कि तुम्हारी जैसी देवी मेरे घर में अतिथि के रूप में है| तुम मेरे लिए पूज्यनीय हो| मैं अपने अतिथि से प्रतिदान लूं, यह अधर्म मुझसे नहीं हो सकेगा| मैं मिट जाऊंगा, पर मैं अतिथि को कष्ट में नहीं पड़ने दूंगा|" ब्राह्मण की बात सुनकर कुंती बोली, "आपने हमें आश्रय देकर हम पर बड़ा उपकार किया है| आप हमारे उपकारी हैं| हमारा धर्म है कि आपको कष्ट में न पड़ने दें| आप अपने धर्म का पालन तो करना चाहते हैं, पर हमें अपने धर्मपालन से क्यों रोक रहे हैं?" कुंती ने जब बहुत आग्रह किया तो ब्राह्मण ने उसकी बात मान ली| उसने दबे स्वर में कहा, "अच्छी बात है बहन ! ईश्वर तुम्हारा भला करे|" कुंती ब्राह्मण के पास से उठकर भीम के पास गई| उसने पूरी कहानी भीम को सुनाकर उससे कहा, "बेटा, परोपकार से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं होता| तुम ब्राह्मण कुटुंब की ओर से बक के पास जाओ| यदि बक तुम्हें मारकर खा जाएगा, तो मुझे प्रसन्नता होगी कि मेरा बेटा परोपकार की वेदी पर बलिदान हो गया|" भीम ने बड़े हर्ष के साथ अपनी मां की आज्ञा को स्वीकार कर लिया| उसने कहा, "मां, तुम्हारी आज्ञा शिरोधार्य है| बक मुझे क्या मारकर खाएगा, तुम्हारे आशीर्वाद से मैं उसे मिट्टी में मिला दूंगा|" संध्या का समय था, भीम एक गाड़ी के ऊपर खाने-पीने का सामान लादकर उसे खींचता हुआ बक के निवास स्थान की ओर चल पड़ा| वह बक के निवास पर पहुंचकर गाड़ी पर लदे हुए खाने के सामान को स्वयं खाने लगा| बक कुपित हो उठा| वह गरजता हुआ बोला, "एक तो तुम देर से आए हो और ऊपर से मेरा भोजन खा रहे हो?" इतना कहकर वह भीम पर टूट पड़ा| भीम तो पहले ही तैयार था| दोनों में मल्लयुद्ध होने लगा| दोनों की गर्जना और ताल ठोंकने के शब्दों से वायुमण्डल गूंज उठा| बक ने बड़ा प्रयत्न किया कि वह भीम को मल्लयुद्ध में पछाड़ दे, पर वह सफल नहीं हुआ| वह स्वयं भीम की पकड़ में आ गया| भीम ने उसे धरती पर गिराकर, उसके गले को इतने जोरों से दबाया कि उसकी जीभ बाहर निकल आई| वह प्राणशून्य हो गया| भीम ने उसे उठाकर नगर के फाटक के पास फेंक दिया| उधर, संध्या समय चारों भाई भिक्षाटन से लौटे, तो कुंती से सबकुछ सुनकर वे बड़े दुखी हुए| उन्होंने अपनी मां से कहा, "तुमने भीम को अकेले भेजकर अच्छा नहीं किया| हम भाइयों में वही एक ऐसा है, जो संकट के समय काम आता है|" कुंती ने अपने पुत्रों को समझाते हुए कहा, "तुम चिंता क्यों करते हो? तुम देखोगे कि मेरा भीम बक को मिट्टी में मिलाकर आएगा|" फिर चारों भाई भीम का पता लगाने के लिए चल पड़े| वे अभी कुछ ही दूर गए थे कि भीम अपनी मस्ती में झूमता हुआ आता दिखाई पड़ा| चारों भाई दौड़कर भीम से लिपट गए| भीम ने उन्हें बताया कि उसने किस तरह अत्याचारी बक को नर्क में पहुंचा दिया है| भीम ने घर पहुंचकर अपनी मां के चरण स्पर्श किए| उसने कहा, "मां, तुम्हारे आशीर्वाद से मैंने बक का संहार कर दिया| अब एकचक्रा के निवासी सदा-सदा के लिए भयमुक्त हो गए|" कुंती ने भीम का मुख चूमते हुए कहा, "बेटा भीम ! मुझे तुमसे यही आशा थी| मैंने इसीलिए तो तुम्हें बक के पास भेजा था|" प्रभात होने पर एकचक्रा निवासियों ने नगर के फाटक पर बक को मृत अवस्था में पड़ा हुआ देखा| उन्हें जहां प्रसन्नता हुई, वहां आश्चर्य भी हुआ - बक का वध किसने किया? क्या ब्राह्मण ने? एकचक्रा के निवासी दौड़े-दौड़े ब्राह्मण के घर पहुंचने लगे| थोड़ी ही देर में ब्राह्मण के द्वार पर बहुत बड़ी भीड़ एकत्रित हो गई| ब्राह्मण के जयनाद से धरती और आकाश गूंजने लगा| ब्राह्मण ने भीड़ को शांत करते हुए कहा, "भाइयो ! बक का वध मैंने नहीं किया है| उसका वध तो मेरे घर में ठहरी हुई ब्राह्मणी के बेटे ने किया है|" एकचक्रा के निवासी इस बात को तो जान गए कि बक का वध ब्राह्मण के घर में टिकी हुई ब्राह्मणी के एक बेटे ने किया है, किंतु अधिक प्रयत्न करने पर भी वे यह नहीं जान सके कि ब्राह्मणी कौन है और उसके पांचों बेटे कौन हैं? किंतु जानने पर भी यह तो हुआ ही कि एकचक्रा निवासी ब्राह्मणी और उसके पुत्रों का बड़ा आदर करने लगे| स्वयं ब्राह्मण भी गर्व का अनुभव करने लगा कि जिस ब्राह्मणी के पुत्र के एकचक्रा के निवासियों को सदा-सदा के लिए संकट मुक्त करा दिया है, वह उसके घर में अतिथि के रूप में टिकी हुई है| ©N S Yadav GoldMine #citylight {Bolo Ji Radhey Radhey} पाण्डव अपनी मां कुंती के साथ इधर से उधर भ्रमण कर रहे थे, वे ब्राह्मणों का वेश धारण किए हुए थे, भिक्षा मां
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{Bolo Ji Radhey Radhey} महाभारत का संक्षिप्त परिचय 'महाभारत' भारत का अनुपम, धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ है। यह हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। यह विश्व का सबसे लंबा साहित्यिक ग्रंथ है, हालाँकि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता है, किन्तु आज भी यह प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है। हिन्दू मान्यताओं, पौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है, और इसे लिखने का श्रेय भगवान गणेश को जाता है, इसे संस्कृत भाषा में लिखा गया था। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदों, वेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं। महाभारत की विशालता और दार्शनिक गूढता न केवल भारतीय मूल्यों का संकलन है बल्कि हिन्दू धर्म और वैदिक परम्परा का भी सार है। महाभारत की विशालता महानता और सम्पूर्णता का अनुमान उसके प्रथमपर्व में उल्लेखित एक श्लोक से लगाया जा सकता है, जिसका भावार्थ है, 'जो यहाँ (महाभारत में) है वह आपको संसार में कहीं न कहीं अवश्य मिल जायेगा, जो यहाँ नहीं है वो संसार में आपको अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा।' यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैं, जो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं। विद्वानों में महाभारत काल को लेकर विभिन्न मत हैं, फिर भी अधिकतर विद्वान महाभारत काल को 'लौहयुग' से जोड़ते हैं। अनुमान किया जाता है कि महाभारत में वर्णित 'कुरु वंश' १२०० से ८०० ईसा पूर्व के दौरान शक्ति में रहा होगा। पौराणिक मान्यता को देखें तो पता लगता है कि अर्जुन के पोते परीक्षित और महापद्मनंद का काल ३८२ ईसा पूर्व ठहरता है। यह महाकाव्य 'जय', 'भारत' और 'महाभारत' इन तीन नामों से प्रसिद्ध हैं। वास्तव में वेद व्यास जी ने सबसे पहले १,००,००० श्लोकों के परिमाण के 'भारत' नामक ग्रंथ की रचना की थी, इसमें उन्होने भरतवंशियों के चरित्रों के साथ-साथ अन्य कई महान ऋषियों, चन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों सहित कई अन्य धार्मिक उपाख्यान भी डाले। इसके बाद व्यास जी ने २४,००० श्लोकों का बिना किसी अन्य ऋषियों, चन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों का केवल भरतवंशियों को केन्द्रित करके 'भारत' काव्य बनाया। इन दोनों रचनाओं में धर्म की अधर्म पर विजय होने के कारण इन्हें 'जय' भी कहा जाने लगा। महाभारत में एक कथा आती है कि जब देवताओं ने तराजू के एक पासे में चारों 'वेदों' को रखा और दूसरे पर 'भारत ग्रंथ' को रखा, तो 'भारत ग्रंथ' सभी वेदों की तुलना में सबसे अधिक भारी सिद्ध हुआ। अतः 'भारत' ग्रंथ की इस महत्ता (महानता) को देखकर देवताओं और ऋषियों ने इसे 'महाभारत' नाम दिया और इस कथा के कारण मनुष्यों में भी यह काव्य 'महाभारत' के नाम से सबसे अधिक प्रसिद्ध हुआ। जय श्री कृष्ण। जय श्री राधे।। ©N S Yadav GoldMine {Bolo Ji Radhey Radhey} महाभारत का संक्षिप्त परिचय 'महाभारत' भारत का अनुपम, धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ है। यह हिन्दू धर्म
Insprational Qoute
सम्पूर्ण रचना अनुशीर्षक में पढ़े। वेदव्यास, वाल्मिकि ,भवभूति,श्रीहर्ष, बाणभट्ट, पल्लवित किया संस्कृत का साहित्य सु -स्पष्ट, चयनित विषयों में प्रकृति का सार अनमोल- है, धरा क
Manish Rohit Garai
Vishw Shanti Sanatan Seva Trust
हरे कृष्ण हरे हरे ©Vishw Shanti Sanatan Seva Trust हरिनाम कीर्तन महिमा - नाम जपत मंगल दिशा दसहुँ By: Dr. Krishna भगवन्नाम अनंत माधुर्य, ऐश्वर्य और सुख की खान है। नाम और नामी में अभिन्नता होती
ओम भक्त "मोहन" (कलम मेवाड़ री)
गण पति बप्पा मोरियाँ,,,,,,भगवान कृष्ण के अलावा "गणपति के मुकुट मे """मोर का पँखी"लगी होती है---- गणपति और कृष्ण दोनो की कामदेव जयी है,,,,
N S Yadav GoldMine
{Bolo Ji Radhey Radhey} कुरुवंश के प्रथम पुरुष का नाम कुरु था| कुरु बड़े प्रतापी और बड़े तेजस्वी थे| उन्हीं के नाम पर कुरुवंश की शाखाएं निकलीं और विकसित हुईं| एक से एक प्रतापी और तेजस्वी वीर कुरुवंश में पैदा हो चुके हैं| पांडवों और कौरवों ने भी कुरुवंश में ही जन्म धारण किया था| महाभारत का युद्ध भी कुरुवंशियों में ही हुआ था| किंतु कुरु कौन थे और उनका जन्म किसके द्वारा और कैसे हुआ था - वेदव्यास जी ने इस पर महाभारत में प्रकाश में प्रकाश डाला है| हम यहां संक्षेप में उस कथा को सामने रख रहे हैं| कथा बड़ी रोचक और प्रेरणादायिनी है| अति प्राचीन काल में हस्तिनापुर में एक प्रतापी राजा राज्य करता था| उस राजा का नाम सवरण था| वह सूर्य के समान तेजवान था और प्रजा का बड़ा पालक था| स्वयं कष्ट उठा लेता था, पर प्राण देकर भी प्रजा के कष्टों को दूर करता था| सवरण सूर्यदेव का अनन्य भक्त था| वह प्रतिदिन बड़ी ही श्रद्धा के साथ सूर्यदेव की उपासना किया करता था| जब तक सूर्यदेव की उपासना नहीं कर लेता था, जल का एक घूंट भी कंठ के नीचे नहीं उतारता था| एक दिन सवरण एक पर्वत पर आखेट के लिए गया| जब वह हाथ में धनुष-बाण लेकर पर्वत के ऊपर आखेट के लिए भ्रमण कर रहा था, तो उसे एक अतीव सुंदर युवती दिखाई पड़ी| वह युवती सुंदरता के सांचे में ढली हुई थी| उसके प्रत्येक अंग को विधाता ने बड़ी ही रुचि के साथ संवार-संवार कर बनाया था| सवरण ने आज तक ऐसी स्त्री देखने की कौन कहे, कल्पना तक नहीं की थी| सवरण स्त्री पर आक्स्त हो गया, सबकुछ भूलकर अपने आपको उस पर निछावर कर दिया| वह उसके पास जाकर, तृषित नेत्रों से उसकी ओर देखता हुआ बोला, "तन्वंगी, तुम कौन हो? तुम देवी हो, गंधर्व हो या किन्नरी हो? तुम्हें देखकर मेरा चित चंचल हो उठा| तुम मेरे साथ गंधर्व विवाह करके सुखोपभोग करो|" पर युवती ने सवरण की बातों का कुछ भी उत्तर नहीं दिया| वह कुछ क्षणों तक सवरण की ओर देखती रही, फिर अदृश्य हो गई| युवती के अदृश्य हो जाने पर सवरण अत्यधिक आकुल हो गया| वह धनुष-बाण फेंककर उन्मतों की भांति विलाप करने लगा, "सुंदरी ! तुम कहां चली गईं? जिस प्रकार सूर्य के बिना कमल मुरझा जाता है और जिस प्रकार पानी के बिना पौधा सूख जाता है, उसी प्रकार तुम्हारे बिना मैं जीवित नहीं रह सकता| तुम्हारे सौंदर्य ने मेरे मन को चुरा लिया है| तुम प्रकट होकर मुझे बताओ कि तुम कौन हो और मैं तुम्हें किस प्रकार पा सकता हूं?" युवती पुन: प्रकट हुई| वह सवरण की ओर देखती हुई बोली, "राजन ! मैं स्वयं आप पर मुग्ध हूं, पर मैं अपने पिता की आज्ञा के वश में हूं| मैं सूर्यदेव की छोटी पुत्री हूं| मेरा नाम तप्ती है| जब तक मेरे पिता आज्ञा नहीं देंगे, मैं आपके साथ विवाह नहीं कर सकती| यदि आपको मुझे पाना है तो मेरे पिता को प्रसन्न कीजिए|" युवती अपने कथन को समाप्त करती हुई पुन: अदृश्य हो गई| सवरण पुन: उन्मत्तों की भांति विलाप करने लगा| वह आकुलित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और तप्ती-तप्ती की पुकार से पर्वत को ध्वनित करने लगा| सवरण तप्ती को पुकारते-पुकारते धरती पर गिर पड़ा और बेहोश हो गया| जब उसे होश आया, तो पुन: तप्ती याद आई, और याद आया उसका कथन - यदि मुझे पाना चाहते हैं, तो मेरे पिता सूर्यदेव को प्रसन्न कीजिए| उनकी आज्ञा के बिना मैं आपसे विवाह नहीं कर सकती| सवरण की रगों में विद्युत की तरंग-सी दौड़ उठी| वह मन ही मन सोचता रहा, वह तप्ती को पाने के लिए सूर्यदेव की आराधना करेगा| उन्हें प्रसन्न करने में सबकुछ भूल जाएगा| सवरण सूर्यदेव की आराधना करने लगा| धीरे-धीरे सालों बीत गए, सवरण तप करता रहा| आखिर सूर्यदेव के मन में सवरण की परीक्षा लेने का विचार उत्पन्न हुआ| रात का समय था| चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था| सवरण आंखें बंद किए हुए ध्यानमग्न बैठा था| सहसा उसके कानों में किसी की आवाज पड़ी, "सवरण, तू यहां तप में संलग्न है| तेरी राजधानी आग में जल रही है|" सवरण फिर भी चुपचाप अपनी जगह पर बैठा रहा| उसके मन में रंचमात्र भी दुख पैदा नहीं हुआ| उसके कानों में पुन: दूसरी आवाज पड़ी, "सवरण, तेरे कुटुंब के सभी लोग आग में जलकर मर गए|" किंतु फिर भी वह हिमालय-सा दृढ़ होकर अपनी जगह पर बैठा रहा, उसके कानों में पुन: तीसरी बार कंठ-स्वर पड़ा, " सवरण, तेरी प्रजा अकाल की आग में जलकर भस्म हो रही है| तेरे नाम को सुनकर लोग थू-थू कर रहे हैं|" फिर भी वह दृढतापूर्वक तप में लगा रहा| उसकी दृढ़ता पर सूर्यदेव प्रसन्न हो उठे और उन्होंने प्रकट होकर कहा, "सवरण, मैं तुम्हारी दृढ़ता पर मुग्ध हूं| बोलो, तुम्हें क्या चाहिए?" सवरण सूर्यदेव को प्रणाम करता हुआ बोला, "देव ! मुझे आपकी पुत्री तप्ती को छोड़कर और कुछ नहीं चाहिए| कृपा करके मुझे तप्ती को देकर मेरे जीवन को कृतार्थ कीजिए|" सूर्यदेव ने प्रसन्नता की मुद्रा में उत्तर दिया, "सवरण, मैं सबकुछ जानता हूं| तप्ती भी तुमसे प्रेम करती है| तप्ती तुम्हारी है|" सूर्यदेव ने अपनी पुत्री तप्ती का सवरण के साथ विधिवत विवाह कर दिया| सवरण तप्ती को लेकर उसी पर्वत पर रहने लगा| और राग-रंग में अपनी प्रजा को भी भूल गया| उधर सवरण के राज्य में भीषण अकाल पैदा हुआ| धरती सूख गई, कुएं, तालाब और पेड़-पौधे भी सुख गए| प्रजा भूखों मरने लगी| लोग राज्य को छोड़कर दूसरे देशों में जाने लगे| किसी देश का राजा जब राग रंग में डूब जाता है, तो उसकी प्रजा का यही हाल होता है| सवरण का मंत्री बड़ा बुद्धिमान और उदार हृदय का था| वह सवरण का पता लगाने के लिए निकला| वह घूमता-घामता उसी पर्वत पर पहुंचा, जिस पर सवरण तप्ती के साथ निवास करता था| सवरण के साथ तप्ती को देखकर बुद्धिमान मंत्री समझ गया कि उसका राजा स्त्री के सौंदर्य जाल में फंसा हुआ है| मंत्री ने बड़ी ही बुद्धिमानी के साथ काम किया| उसने सवरण को वासना के जाल से छुड़ाने के लिए अकाल की आग में जलते हुए मनुष्यों के चित्र बनवाए| वह उन चित्रों को लेकर सवरण के सामने उपस्थित हुआ| उसने सवरण से कहा, "महाराज ! मैं आपको चित्रों की एक पुस्तक भेंट करना चाहता हूं|" मंत्री ने चित्रों की वह पुस्तक सवरण की ओर बढ़ा दी| सवरण पुस्तक के पन्ने उलट-पलट कर देखने लगा| किसी पन्ने में मनुष्य पेड़ों की पत्तियां खा रहे थे, किसी पन्ने में माताएं अपने बच्चों को कुएं में फेंक रही थीं| किसी पन्ने में भूखे मनुष्य जानवरों को कच्चा मांस खा रहे थे| और किसी पन्ने में प्यासे मनुष्य हाथों में कीचड़ लेकर चाट रहे थे| सवरण चित्रों को देखकर गंभीरता के साथ बोला, "यह किस राजा के राज्य की प्रजा का दृश्य है?" मंत्री ने बहुत ही धीमे और प्रभावपूर्वक स्वर में उत्तर दिया, "उस राजा का नाम सवरण है|" यह सुनकर सवरण चकित हो उठा| वह विस्मय भरी दृष्टि से मंत्री की ओर देखने लगा| मंत्री पुन: अपने ढंग से बोला, "मैं सच कह रहा हूं महाराज ! यह आपकी ही प्रजा का दृश्य है| प्रजा भूखों मर रही है| चारों ओर हाहाकार मचा है| राज्य में न अन्न है, न पानी है| धरती की छाती फट गई है| महाराज, वृक्ष भी आपको पुकारते-पुकारते सूख गए हैं|" यह सुनकर सवरण का हृदय कांप उठा| वह उठकर खड़ा हो गया और बोला, "मेरी प्रजा का यह हाल है और मैं यहां मद में पड़ा हुआ हूं| मुझे धिक्कार है| मंत्री जी ! मैं आपका कृतज्ञ हूं, आपने मुझे जगाकर बहुत अच्छा किया|" सवरण तप्ती के साथ अपनी राजधानी पहुंचा| उसके राजधानी में पहुंचते ही जोरों की वर्षा हुई| सूखी हुई पृथ्वी हरियाली से ढक गई| अकाल दूर हो गया| प्रजा सुख और शांति के साथ जीवन व्यतीत करने लगी| वह सवरण को परमात्मा और तप्ती को देवी मानकर दोनों की पूजा करने लगी| सवरण और तप्ती से ही कुरु का जन्म हुआ था| कुरु भी अपने माता-पिता के समान ही प्रतापी और पुण्यात्मा थे| युगों बीत गए हैं, किंतु आज भी घर-घर में कुरु का नाम गूंज रहा है| ©N S Yadav GoldMine {Bolo Ji Radhey Radhey} कुरुवंश के प्रथम पुरुष का नाम कुरु था| कुरु बड़े प्रतापी और बड़े तेजस्वी थे| उन्हीं के नाम पर कुरुवंश की शाखाएं निकल
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{Bolo Ji Radhey Radhey} अर्जुन ने महाभारत युद्ध में युधिष्ठिर को मारने के लिए क्यों उठाई तलवार :- महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित ‘महाभारत’ एक बहुत ही विस्तृत ग्रन्थ है जिसमें अनेकों अनेक कहानियां है। आम जन इनमे से अनेक कहानियों और प्रसंगों से अवगत है लेकिन बहुतों से अनजान है। आज हम आपको महाभारत का एक ऐसा ही प्रसंग बताते है जब अर्जुन ने अपने ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर को मारने के लिए हथियार उठाए थे। आइए जानते है आखिर अर्जुन ने ऐसा क्यों किया और इसका परिणाम क्या निकला। महाभारत काल की यह कथा हमें वह समय याद कराती है जब कुरुक्षेत्र युद्ध चल रहा था। यह युद्ध का 17वां दिन था और राजकुमार युधिष्ठिर तथा कर्ण के बीच युद्ध हो रहा था। सभी को इस युद्ध से बेहद उम्मीदें थीं कि तभी शस्त्र विद्या में माहिर रहे कर्ण ने युधिष्ठिर पर एक ज़ोरदार वार किया। एक के बाद एक करके कर्ण के सभी वार युधिष्ठिर पर भारी पड़ते गए और वह बुरी तरह से घायल हो गया। अब कर्ण के पास एक मौका था कि वह युधिष्ठिर को मारकर पाण्डवों की नींव हिलाकर रख दे, लेकिन उसने यह मौका हाथ से जाने दिया। आखिर क्यों? कर्ण ने युधिष्ठिर पर सिर्फ इसलिए वार नहीं किया क्योंकि उसने पांडवों की माता कुंती को यह वचन दिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए, वह उनके किसी भी पुत्र को जान से नहीं मारेगा। और यही कारण था कि ना चाहते हुए भी कर्ण ने युधिष्ठिर को जीवित ही जाने दिया। जब अनुज नकुल तथा सहदेव ने अपने ज्येष्ठ भ्राता राजकुमार युधिष्ठिर की यह हालत देखी तो शीघ्र ही उन्हें तंबू में ले गए, जहां उनकी मरहम-पट्टी के सभी इंतज़ाम किए गए। जब तीनों भाई तंबू में थे तो बाकी दो भाई अर्जुन तथा भीम अभी भी युद्ध में शत्रुओं की सेना से संघर्ष कर रहे थे। अचानक ही अर्जुन को राजकुमार युधिष्ठिर की अनुपस्थिति का एहसास हुआ और उन्होंने भीम से इस बारे में पूछताछ की। तब भीम ने बताया कि किस तरह से कर्ण तथा युधिष्ठिर के बीच हुए द्वंद युद्ध में भ्राता युधिष्ठिर घायल हो गए, जिसके बाद उन्हें विश्राम करने के लिए ले जाया गया है। तभी भीम ने अर्जुन से कहा कि वह शत्रुओं को अकेले ही संभाल लेंगे और अर्जुन से आग्रह किया कि वे भ्राता युधिष्ठिर के पास जाएं और उनके स्वास्थ्य का ब्योरा लें। आज्ञानुसार राजकुमार अर्जुन उस तंबू की ओर चले दिए, जहां युधिष्ठिर घायल आवस्था में पीड़ा से जूझ रहे थे। तंबू में लेटे हुए युधिष्ठिर ने अचानक ही अपने अनुज को अपनी ओर आते हुए देखा। अर्जुन को देख उनकी खुशी का ठिकाना ना रहा। वह समझ गए कि हो ना हो अर्जुन युद्ध में कर्ण पर विजय प्राप्त कर उनके पास खुशखबरी लेकर आ रहे हैं। वह अंदर ही अंदर बेहद गर्व महसूस कर रहे थे कि उनकी इस हालत के लिए जिम्मेदार व्यक्ति को उनके अनुज ने दंड दे दिया है और अवश्य ही अर्जुन ने कर्ण को मार दिया होगा। लेकिन युधिष्ठिर सत्य से अनजान थे। तंबू में प्रवेश करते ही अर्जुन ने ज्येष्ठ भ्राता को प्रणाम किया और उनसे उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछा। लेकिन इससे ज्यादा तो युधिष्ठिर इस बात को सुनने के लिए ज्यादा उत्तेजित हो रहे थे कि अर्जुन ने कर्ण को मारा या नहीं। लेकिन तभी राजकुमार अर्जुन द्वारा वहां आने का असली कारण व्यक्त किया गया। उन्होंने बताया कि कैसे भीम ने युधिष्ठिर के घायल होने की खबर सुनाई जिसके बाद वह दौड़े-दौड़े उनकी स्थिति का ब्योरा लेने आ गए। अर्जुन के मुख से सच्चाई सुनते ही युधिष्ठिर अपना आपा खो बैठे। वह सच उनकी भावनाओं को ठेस पहुंचा रहा था। उन्हें ऐसा महसूस हुआ मानो कोई उनके सम्मान को तीर के समान चीरता हुआ जा रहा हो। वे बेहद क्रोधित हो उठे और बोले, “तुम यहां केवल मेरे घावों के बारे में पूछने आए हो या फिर उन्हें और कुरेदने आए हो? तुम किस प्रकार के अनुज हो जो अब तक अपने ज्येष्ठ भ्राता के अपमान का बदला नहीं ले सके।“ युधिष्ठिर के इन कटु वचनों को सुनकर अर्जुन बेहद शर्मिंदा महसूस कर रहे थे, लेकिन युधिष्ठिर का क्रोध शांत नहीं हो रहा था। वे आगे बोले, “यदि तुम मेरे लिए इतना भी करने में असमर्थ हो तो तुम्हारे इस गांडीव अस्त्र का कोई लाभ नहीं है। उतार कर फेंक दो इसे।“ अपने प्रिय गांडीव अस्त्र की निंदा सुनते ही अर्जुन के मुख पर निराशा वाले भाव पल में ही क्रोध के साथ बदल गए। वह संसार में किसी से भी किसी भी प्रकार की निंदा सुन सकते थे, लेकिन उनके गांडीव के बारे में कोई एक भी अपशब्द बोले, यह उन्हें बर्दाश्त नहीं था। दरअसल यह अर्जुन द्वारा लिए गए एक वचन का हिस्सा था, जिसके अनुसार कोई भी अपना या पराया व्यक्ति यदि उनके पवित्र एवं प्रिय गांडीव अस्त्र के बारे में बुरे वचन बोलेगा, तो वह उसका सिर कलम कर देंगे। यही कारण था कि युधिष्ठिर द्वारा गांडीव की निंदा करते ही अर्जुन ने अगले ही पल अपना गांडीव उठाया और क्रोध भरी आंखों से युधिष्ठिर को मारने के लिए आगे बढ़े। तभी श्रीकृष्ण वहां पहुंचे और अर्जुन के इस व्यवहार को देखते ही उन्हें रुकने की आज्ञा दी। श्रीकृष्ण राजकुमार अर्जुन का यह रूप देखकर बेहद अचंभित हुए। वे समझ नहीं पा रहे थे कि आखिरकार ऐसी क्या बात हुई जो अर्जुन अपने ही प्रिय भाई युधिष्ठिर के प्राण लेने को तैयार हो गए। तत्पश्चात अर्जुन ने उन्हें घटना का सार बताया और फिर श्रीकृष्ण को समझ आया कि आखिर बात क्या थी। उस समय भगवान कृष्ण ने अर्जुन को समझाया और बोले, “हे अर्जुन! मैं तुम्हारे अपने गांडीव के संदर्भ में लिए गए वचन का सम्मान करता हूं। वचनानुसार तुम्हें अपने ही ज्येष्ठ भ्राता को मार देने का पूरा हक है, परन्तु धार्मिक संदर्भों में यह पाप है।“ लेकिन दूसरी ओर अर्जुन भी अपने वचन से मजबूर थे। उनकी मंशा को और गहराई से समझते हुए श्रीकृष्ण बोले, “अर्जुन, यदि तुम्हे अपने वचन को पूरा करना है तो इसका एक अन्य साधन भी है। माना जाता है कि अपने से बड़ों का अनादर करना उन्हें मृत्यु दंड देने के समान होता है। यदि अभी तुम अपने ज्येष्ठ भ्राता का अपमान करो तो तुम्हारा वचन पूरा हो जाएगा।“ श्रीकृष्ण की आज्ञानुसार अर्जुन ने अगले ही पल युधिष्ठिर का तिरस्कार किया। अपने द्वारा किए गए इस अनादर को अर्जुन सहन ना कर सके और इस बार अपने ही प्राण लेने के लिए उन्होंने अपनी तलवार उठा ली। लेकिन भगवान कृष्ण ने उन्हें ऐसा करने नहीं दिया। उन्होंने अर्जुन को बताया कि कैसे खुद के प्राणों का अंत करना यानी कि आत्मदाह करना शास्त्रों में अधर्म माना जाता है। और पाण्डवों द्वारा अधर्म के मार्ग पर चलना एक बहुत बड़ा पाप एवं अन्याय साबित होगा। इसीलिए उसे धर्म का मार्ग चुनना चाहिए। इसके साथ ही श्रीकृष्ण ने कहा कि आत्मप्रशंसा, आत्मघात के समकक्ष है। इसलिए तुम दूसरों के सम्मुख अपनी वीरता की खुलकर तारीफ़ करो, जिससे तुम्हारा वचन पूरा हो जाएगा। श्रीकृष्ण के इन वचनों को सुन धीरे-धीरे राजकुमार अर्जुन का क्रोध शांत हुआ और उन्होंने खुद के सिर पर रखी उस तलवार को नीचे उतार कर फेंक दिया। इस प्रकार भगवान कृष्ण के निर्देशों से राजकुमार अर्जुन का वचन पूरा हुआ और साथ ही वह किसी भी प्रकार का अधर्म करने से बच गए। जय श्री कृष्ण।। ©N S Yadav GoldMine #CityWinter {Bolo Ji Radhey Radhey} अर्जुन ने महाभारत युद्ध में युधिष्ठिर को मारने के लिए क्यों उठाई तलवार :- महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित ‘म