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नितिन कुमार 'हरित'

वेदना है भरी वेदना इस तन में, हे वेणु! तुम कैसे जानो? मै विरह कलित हूँ सावन में, तुम राग अमंद मानस तानो। तुम पवन मिले, धरती-अम्बर, तुम पूर्ण #Love #truelove #कविता #NitinDilSe #kavyapankh #imsgzb

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वेदना
है भरी वेदना इस तन में, हे वेणु! तुम कैसे जानो?
मै विरह कलित हूँ सावन में, तुम राग अमंद मानस तानो।
तुम पवन मिले, धरती-अम्बर, तुम पूर्ण हुए, अब जल-जलधर,
तुम मधुर शब्द गुंजाते हो, व्यंगित होते हैं हृदय पर ।
पर करके तुमको अवहेलित, मैं भी तो सार मिटाता हूं,
मैं विरहाकुल हूँ इस कारण, हे युगल! झुलसता जाता हूँ।
तुम पवन मिलो और शब्द बने, शब्दों की निर्मल धारा हो,
तुम सावन के मीत बनो, ये सावन तुमको प्यारा हो।
मैं भी एक स्वप्निल जगत बना, एक भीना राग बनाऊंगा,
तब जाकर विरह - वेदना से निज का संबध मिटाऊंगा।।

- Nitin Kr Harit वेदना
है भरी वेदना इस तन में, हे वेणु! तुम कैसे जानो?
मै विरह कलित हूँ सावन में, तुम राग अमंद मानस तानो।
तुम पवन मिले, धरती-अम्बर, तुम पूर्ण

Nitin Kr Harit

वेदना है भरी वेदना इस तन में, हे वेणु! तुम कैसे जानो? मै विरह कलित हूँ सावन में, तुम राग अमंद मानस तानो। तुम पवन मिले, धरती-अम्बर, तुम पूर्ण #yqdidi #yqhindi #yqquotes #NitinDilSe

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वेदना
है भरी वेदना इस तन में, हे वेणु! तुम कैसे जानो?
मै विरह कलित हूँ सावन में, तुम राग अमंद मानस तानो।
तुम पवन मिले, धरती-अम्बर, तुम पूर्ण हुए, अब जल-जलधर,
तुम मधुर शब्द गुंजाते हो, व्यंगित होते हैं हृदय पर ।
पर करके तुमको अवहेलित, मैं भी तो सार मिटाता हूं,
मैं विरहाकुल हूँ इस कारण, हे युगल! झुलसता जाता हूँ।
तुम पवन मिलो और शब्द बने, शब्दों की निर्मल धारा हो,
तुम सावन के मीत बनो, ये सावन तुमको प्यारा हो।
मैं भी एक स्वप्निल जगत बना, एक भीना राग बनाऊंगा,
तब जाकर विरह - वेदना से निज का संबध मिटाऊंगा।। वेदना
है भरी वेदना इस तन में, हे वेणु! तुम कैसे जानो?
मै विरह कलित हूँ सावन में, तुम राग अमंद मानस तानो।
तुम पवन मिले, धरती-अम्बर, तुम पूर्ण

Mudit sand

यह रात वाह क्या रात है, कोई निराली बात है  में यूँ अकेला हूँ मगर, धरा गगन के साथ है   चंदा अम्बर में हैं बैठे, अंखिया सितारे दुनिया देखे  #poem #Nozoto

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यह रात वाह क्या रात है, 
कोई निराली बात है 
में यूँ अकेला हूँ मगर,
 धरा गगन के साथ है   यह रात वाह क्या रात है, कोई निराली बात है 

में यूँ अकेला हूँ मगर, धरा गगन के साथ है  

चंदा अम्बर में हैं बैठे, अंखिया सितारे दुनिया देखे 

Bharat Bhushan pathak

लिखूँ तुझको,यहाँ दिलवर,सजाकर मैं,यहाँ पाती। रहूँ तुम बिन,यहाँ जैसे,रहे है दीप बिनु बाती। चुना है शब्द जो मैंने,सुनो कैसे ,इसे पाया, #Love #कविता

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लिखूँ तुझको,यहाँ दिलवर,सजाकर मैं,यहाँ पाती।

   रहूँ तुम बिन,यहाँ जैसे,रहे है दीप बिनु बाती।
  
  चुना है शब्द जो मैंने,सुनो कैसे ,इसे पाया,

   घटाओं से,चुराया है,हवाओं से,सुनो आती। १

  लिया है वेणु से उनके,कहे मोहन,जिसे गिरिधर।
 
  नदी से है,मिला मुझको ,दिया इसको,मुझे जलधर।
 
   डुबाकर प्रेम की कूची,तराशा है,इसे मैंने,
  
 नहीं आता, मुझे लिखना,समझ लो भाव तुम प्रियवर।   २

पढ़ा ना मैं,लिखा हूँ फिर,सजाया क्या,बताता हूँ।

कुरेदा नाम रोटी पर,वही ही मैं,लगाता हूँ।।

नहीं रोटी,इसे मानो,सुनो दिल ही,इसे जानो,

छुपाया है,अभी तक जो,वही तुमको ,जताता हूँ।३


कहे चंदा,अजी प्रियतम,नहीं ये शब्द मैं जानूँ ।

मुझे इतना,सुनो आता,यहाँ तुमको,सदा मानूँ।

नहीं मैं चाँद तोडूँगा,न आसमाँ ही,झुकाऊँगा,

करूँगा जो, वही मैं तो,उसे ही तो,सदा ठानूँ। ४

©Bharat Bhushan pathak लिखूँ तुझको,यहाँ दिलवर,सजाकर मैं,यहाँ पाती।

   रहूँ तुम बिन,यहाँ जैसे,रहे है दीप बिनु बाती।
  
  चुना है शब्द जो मैंने,सुनो कैसे ,इसे पाया,

ALOK Sharma

देखो लगते कितने सुंदर हैं पहाड़ शांत स्थिर न कोई इनमें है दहाड़ घमंड नही ज़रा अपनी सुंदरता पर मजबूती शान से खड़े अधीरता पर ऊँचे चढ़ना इतना आ #Life #Hindi #New #poem #Life_experience #Mountan #CalmingNature

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देखो लगते कितने सुंदर हैं पहाड़ 
शांत स्थिर न कोई इनमें है दहाड़ 
घमंड नही ज़रा अपनी सुंदरता पर
मजबूती शान से खड़े अधीरता पर  
ऊँचे  चढ़ना इतना आसान नही पर  
अपनी ऊँचाई पे कोई अभिमान नही
प्रकृति के हैं वो अमूल्य अभिन्न हिस्से
कालो से धरती पे हैं  जुड़े कई किस्से 
उनका अपना  कोई  ऐसा स्वार्थ नही 
प्रकट स्वरूप दूजा कोई परमार्थ नही 
ऋषि  मुनि  का तप हो या 
अविनाशी शिव का घर हो 
जड़ी बूटियों का भंडार यहीं पर 
अद्भुत हैं कई चमत्कार यहीं पर 
नदियों का  द्वार यहीं पर
झरनों की बहार यहीं पर
जलधर निवास .....read more in caption

©ALOK SHARMA देखो लगते कितने सुंदर हैं पहाड़ 
शांत स्थिर न कोई इनमें है दहाड़ 
घमंड नही ज़रा अपनी सुंदरता पर
मजबूती शान से खड़े अधीरता पर  
ऊँचे  चढ़ना इतना आ

रजनीश "स्वच्छंद"

ज्ञान कुंड।। सर्वविदित ये ज्ञान कुंड स्वतः क्षय होता रहा, स्वर्णयुगी ये काल-खंड अवशेषमय होता रहा। आरोह और अवरोह में, सार्थक ध्वनि कहीं मन् #Poetry #kavita

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ज्ञान कुंड।।

सर्वविदित ये ज्ञान कुंड स्वतः क्षय होता रहा,
स्वर्णयुगी ये काल-खंड अवशेषमय होता रहा।

आरोह और अवरोह में,
सार्थक ध्वनि कहीं मन्द थी।
कपट-क्लेश विकृत समर में,
रोध-इंद्रियां बड़ी चंद थीं।
स्फटिक धाग पिरो पिरो,
मंत्रोच्चरित बल भी मूक था।
अवधारणा प्रतिकूल थी,
पथद्रष्टा ठिठक दो टूक था।
अर्जुन सहज सखा कृष्ण भी,
अश्व-टाप सार धूमिल रहा।
अपभ्रंश शब्द कर्ण-पट पड़े,
आशय अनर्थ कुटिल रहा।
अर्थ भी बहुरुपिया हो स्वांगमय होता रहा।
सर्वविदित ये ज्ञान कुंड स्वतः क्षय होता रहा।

अवलोकन आलोक बिन,
सामर्थ्य शब्द उधेड़ता।
कर्म-शिल्पी कृतान्ध बन,
कुविचार लब्ध उकेरता।
जो दिग्भ्रमित वाहित हुआ,
पथ ज्ञान कब वो वाचता।
व्याधी-युक्त उपचार ले,
किस मुख मनुज को जांचता।
किस विधा परिवेश क्या,
किस शोध जीव विहित हुआ।
निःपुष्प तरु तोयहीन जलधर,
अन्तर्मन सजीव निहित हुआ।
बंशी-धुन की छांव में विलाप लय होता रहा।
सर्वविदित ये ज्ञान कुंड स्वतः क्षय होता रहा।

विषपान कर ले कंठ नील,
नव-युग अन्वेषित हो रहा।
कण कण धरा पुनीत धाम,
दण्ड-दोष उल्लेखित हो रहा।
देखो दमकती चल पड़ी,
झुर्रियों में खिल रहा तारुण्य है।
पत्तियों की झुरमुटों से,
धरा से मिल रहा आरुण्य है।
तम भेदती ये अरुणिमा,
स्वागत गान में सृष्टि लगी।
मानव हृदय के कपाट खोल,
ये नव-सृजित दृष्टि जगी।
दृष्टिपात से अंकुरित शीतल मलय होता रहा।
सर्वविदित ये ज्ञान कुंड स्वतः क्षय होता रहा।।

©रजनीश "स्वछंद" ज्ञान कुंड।।

सर्वविदित ये ज्ञान कुंड स्वतः क्षय होता रहा,
स्वर्णयुगी ये काल-खंड अवशेषमय होता रहा।

आरोह और अवरोह में,
सार्थक ध्वनि कहीं मन्
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