स्याह अंधेरों में भटकते दिल को है आज़माने की तलब
कोहरे में लिपटे हुए रिश्तों को पहचान पाने की तलब
एक आशियाना जो बिखरता ही रहा बेवजह सर-ए-राह
उस तह-ए-ख़ाक़ को फिर समेट कर बसाने की तलब
बीते लम्हों के दामन में जो लिपटे हैं हज़ारों तूफाँ
पढ़ने को बेताब शीशे पर लिखे उस अफ़साने की तलब #Poetry