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स्याह अंधेरों में भटकते दिल को है आज़माने की तलब क

 स्याह अंधेरों में भटकते दिल को है आज़माने की तलब
कोहरे में लिपटे हुए रिश्तों को पहचान पाने की तलब

एक आशियाना जो बिखरता ही रहा बेवजह सर-ए-राह 
उस तह-ए-ख़ाक़ को फिर समेट कर बसाने की तलब

बीते लम्हों के दामन में जो लिपटे हैं हज़ारों तूफाँ
पढ़ने को बेताब शीशे पर लिखे उस अफ़साने की तलब
 स्याह अंधेरों में भटकते दिल को है आज़माने की तलब
कोहरे में लिपटे हुए रिश्तों को पहचान पाने की तलब

एक आशियाना जो बिखरता ही रहा बेवजह सर-ए-राह 
उस तह-ए-ख़ाक़ को फिर समेट कर बसाने की तलब

बीते लम्हों के दामन में जो लिपटे हैं हज़ारों तूफाँ
पढ़ने को बेताब शीशे पर लिखे उस अफ़साने की तलब

स्याह अंधेरों में भटकते दिल को है आज़माने की तलब कोहरे में लिपटे हुए रिश्तों को पहचान पाने की तलब एक आशियाना जो बिखरता ही रहा बेवजह सर-ए-राह उस तह-ए-ख़ाक़ को फिर समेट कर बसाने की तलब बीते लम्हों के दामन में जो लिपटे हैं हज़ारों तूफाँ पढ़ने को बेताब शीशे पर लिखे उस अफ़साने की तलब #Poetry