अब कैसे लिखूँ मैं, जब खून से लथपथ हैं कलम मेरी मंदीर मैं बैठा भगवान भी, बचा न सका आबरू तेरी यूँ मासूम तितली के परों को, बेरहमी से कुचल दिया शर्मिंदा हैं हम, यहाँ खुले आम इंसानियत को उछल दिया दहलीज पे रखे चरागो को अब बिखर देना हो सके तो आसिफा हमें माफ़ कर देना ए कैसा दुर्भाग्य हैं, जिनको इसमें भी धर्म दिखाई देता हैं यूँ इज्जत लूटने वालों का, अच्छा कर्म दिखाई देता हैं ऐसे हैवानो को जहाँ दिखे वही गोली से टपका दो जो करे अपराधियों का समर्थन, उनको भी फाँसी पर लटका दो फिर भी न खुले हाथ तुम्हारे, तो हाथों में कंगन भर देना हो सके तो आसिफा हमें माफ़ कर देना - स्वप्निल माने