सावन की, मीठी तोतली, पुरवैया ले गए वो शहरी झुंड, मेरे आंगन की, गौरैया ले गए सूरज की रोशनी, अपनी चोंच में दबाती थी रोज़ चुपके से, धीरे धीरे, मुझको जगाती थी यहां वहां बस, ज़मीन पर, उछलती थी चुप चाप होती थी, जब शाम ढलती थी कुछ घास, यहां वहां, कुछ दीवारों में है उसका घोस्ला, वही एंटीने की, तारों में है इसी महल का शायद, दुश्मन ज़माना था इसी छोटे से कोने में, उसका ठिकाना था आधुनिक युग का, जैसे वो, अभिशाप थी वो कुछ दिन से खामोश थी, चुपचाप थी इंसान बहुत तेज, उसकी अपनी सीमा थी छोटी उसकी छलांग, वो बोलती धीमा थी इस शोर में उसकी, आवाजें खो गई थी हल्की फुल्की, इस जहां पे, बोझ हो गई थी सावन की, मीठी तोतली, पुरवैया ले गए वो शहरी झुंड, मेरे आंगन की, गौरैया ले गए #गौरैया #sparrow #वत्स #vatsa #dsvatsa #illiteratepoet #hindipoetry सावन की, मीठी तोतली, पुरवैया ले गए वो शहरी झुंड, मेरे आंगन की, गौरैया ले गए सूरज की रोशनी, अपनी चोंच में दबाती थी रोज़ चुपके से, धीरे धीरे, मुझको जगाती थी