यूंही चुपचाप खड़ी देखती रही मैं तुम्हें जातें हुए, ना जाने क्यों मेरे होंठ खामोश थे जैसे सिल दिए हो किसी ने बोलना चाहती थी पर शब्द जैसे होंठो पर आकर रुक गये थे तुम आए थे लौटकर इतने वर्षों बाद सोचा था करुंगी ढेर सारी बातें, तुमसे बाटूंगी अपने गम, खुशियों की पुरानी यादों को लेकिन तुम आये और चल दिए मै कुछ कह ही न पाई तुम निकल पड़े अपनी राह पलट कर देखा था तुमने शायद तुम्हें ये आस थी कि रोक लूंगी मैं तुम्हारा हाथ थाम पर मैं खड़ी रही यूंही चुपचाप नि:शब्द होकर। --Indu mitra रोक लेना था मुझे तुम्हें जाते हुए