श्रृंगार प्रकृति का जित देखूँ तीत पाऊँगा, शब्दों की माला में कैसे इसको लाऊँगा । कही घने है मेघ बड़े कही सूरज की लाली है, कही भोले का सावन कही कान्हा की होली है । एक छोर है हिम का आलय दूजा रेगिस्तान दिखे , तीन खण्डों पर नीर भरा एक पर सारा जहान दिखे । कही मिटाता अँधकार को शुक्लपक्षि चाँद दिखे, करती हरण प्रकाश का अमावस्य काली रात दिखे । ऊपर चमकता सूरज चाँद सितारों से नील गगन विशाल दिखे, नीचे सिंधु के आँगन में क्रीडा करती धरा उपवन समान लगे । श्रृंगार प्रकृति तेरा मै कैसे गाऊँगा, शब्दों की माला में कैसे इसको लाऊँगा । $रोहित सैनी...@$ श्रृंगार प्रकृति का