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सोच(हद्रय) सोच इस शरीर रूपी भवसागर स्वरूप ह्

   सोच(हद्रय)
   सोच इस शरीर रूपी भवसागर स्वरूप ह्रदय का 
ऐसा रत्न  है। 
  जो अन्दर तो  बहुत ही तरल रहता है ,
 बाहर निकलते  ही ठोस रूप हो जाता है ,
 ठोस रूप में तो ये कभी -कभी तो,
 ये करोड़ों सालो तक नहीं फुटता है।
  जैसे कि -
  कण-कण में भगवान होता है ?
   आप खुद ही देख लीजिए हे परमत्तव अंश।
  अन्दर स्वरूप कैसा है?
  बाहर कैसा है ?
   क्योंकि जिसने बोला इस वाक्य को,
   यह उनकी सोच ही थी,
 एक हृदय से निकली।
   आप इसको फोड़ कर दिखा दीजिए । 
समस्त पृथ्वी के परमत्तव अंश ।
   प्रमाण से हम जीवित हैं, प्रमाण से ही आप भी जीवित हैं।
 जन्म है तो मृत्यु भी देना हृदय में बैठा हुऐ का अधिकार है।

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