सुनसान खेतों में अपने बैलों के साथ बातें करते हुए,सहसा देखा किसी को जाकर निकट और जब देखा वहां एक बूढ़ा खड़ा था सिर पर मटमैल गमछा बांधे खड़ा था धूप में पसीने से तर-बतर नंगें बदन पैरों में बिवाई फटी फिर भी हंसते हुए बैलों से कर रहा बातें बैल भी प्रेम के रस में मग्न हो सहमति से सर हिला देते देखा तभी दूर मेंढ़ों पर पुटकी में कुछ बांधे चली आ रही कोई अबला निडर आकर के रूकी बूढ़े के पास कुछ कहती है बुढ़े को डांटकर कुछ बुदबुदाते हुए बुढ़ा खांसकर बैलों को बगल के खेतों में बांधकर दोनों बैठकर छांव में बात करने लगे पुटकी में से सूखी रोटी नमक लेकर माथे से लगाकर छकते हुए दोनों आपस में झगड़ते हुए एक दूजे को फिर कुछ कहने लगे देखकर प्रेम के दो रूप एक साथ में मेरे दोनों अश्रु सजल हो गये जिस जीवन को मैं व्यर्थ समझता रहा ऐसे जीवन को ये हंसकर जी रहे फिर चला वापस अपने राह पर मन में यही सोचते हुए कि आज के युग में ऐसा प्रेम कहां रह गया सभी सर्वार्थ सिद्धि में बस हैं लगे हुए प्रेम की परिभाषा आखिर बयां कैसे हो जब सब प्रेम की अभिलाषा को लेकर जी रहे। प्रेम, #किसान और वर्तमान सुनसान खेतों में अपने बैलों के साथ बातें करते हुए,सहसा देखा किसी को जाकर निकट और जब देखा वहां एक बूढ़ा खड़ा था सिर पर मटमैल गमछा बांधे खड़ा था धूप में पसीने से तर-बतर नंगें बदन पैरों में बिवाई फटी फिर भी हंसते हुए बैलों से कर रहा बातें