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कहानी भाग 1 और फिर एक रोज़ मैं तुम्हें हार गई.

कहानी

भाग 1




और फिर एक रोज़ मैं तुम्हें हार गई... 
Read in caption! आजकल लिखती बहुत हूँ मगर कुछ लिख नहीं पाती....कुछ ऐसा जो कि तुम्हें जीत लाये... खैर हम हैं ही सूरज और पृथ्वी की  उस मनगढंत कहानी के जैसे जिसमें सूरज पृथ्वी का पिता होता है मगर जैसे ही सम्मुख हो साक्षात्कार का क्षण होता है पृथ्वी अपनी धुरी पर घूम जाती है और स्वागत होता है रात्रि का, इसी तरह पिता के चारों ओर पृथ्वी चक्कर लगाती रहती है,  लगाती रहती है, लगाती रहती है और बस लगाती रह जाती है.....मैं जानती हूँ भाव कुछ भी हो पृथ्वी चक्कर ही लगाएगी और फिर अंधकार उसे घेर लेगा....मगर मैंने आगे बढ़ने के क्षण वो दरवाज़े बंद नहीं किये जिनसे होकर तुम मुझे ढूंढ ना सको... आखिर ये खुद को हारते आने का सफर कई सदियों से तय जो करती आ रही हूँ.....याद है जब आँखों ने कहा था ये शब्दों को मत पूछो,  ये झूठे हैं, ह्रदय की वेदना तो आँखों में बहती है, जिसके लिये इसलिए कलम के पास शब्दों की कोई प्रजाति ही नहीं....देवदार का वृक्ष आज तस्वीरों से झाँक कर हँस रहा था मेरे मन की उसी मटमैली खिड़की पर बैठा देख तू आज फिर हार गई.....अब लिखना छोड़ दिया है मैंने क्यूंकि उस आसमानी खिड़की से जिसके झंरोखे से झाँक मैं कहानियाँ बुनती थी उनमें भावनाओं की जंग आ गई है और कलम की नोंक ताप में पिघल गई है.... ऐसे में बस ये तुलसी का पौधा मुझसे बातें करता है किसी नवजात शिशु सी भीनी भीनी मासूमियत की सुगंध के साथ.....मोटी सी उसके डायरी के पन्नों पर लिखा ही रही थी सुधा कि पीछे से बेड पर किसी के थके हुये शरीर से ऑफिस बैग  किसी मुरझाये फूल सा धम्म से गिरा... इस आवाज़ को सुनते ही.. सजगता से कलम पकड़े हुये उन हाथों में कलम की जगह एक पानी के ग्लास ने ले ली...सुर्ख चूड़ियों से भरे उन गोरे हाथों से ग्लास लेता हुआ मयूर बड़े हास्य अंदाज़ में बोला "चूड़ियाँ और पेन कमाल का कॉम्बिनेशन मिला है मुझे यार ",  सुधा कहती भी तो क्या आखिर वो रोज़ ही उसके लौटने के समय तक उन शब्दों की गलियों में अकेली भटकती रहती थी... नज़रें झुकाये चुपचाप खड़ी मयूर के हाथों को देख रही थी शादी की वो अंगूठी कभी मयूर ने उतारी ही नहीं ही....सोच में डूबी हुई सुधा को मयूर ने हाथ पकड़कर खींचते हुये अपने पास बिठा लिया "कहिये तो आज आपकी इन प्यारी आँखों में गोते लगाकर ही पेट भर लें, ना दिल भरेगा ना पेट ".... सुधा भागकर उठ खड़ी हुई " जी...जी..वो मैं...मैं.. खाना लाती हूँ " मुड़कर मुस्कुराती हुई रसोईघर की तरफ बढ़ गई....
To be continued 
#yqstory #storyteller
कहानी

भाग 1




और फिर एक रोज़ मैं तुम्हें हार गई... 
Read in caption! आजकल लिखती बहुत हूँ मगर कुछ लिख नहीं पाती....कुछ ऐसा जो कि तुम्हें जीत लाये... खैर हम हैं ही सूरज और पृथ्वी की  उस मनगढंत कहानी के जैसे जिसमें सूरज पृथ्वी का पिता होता है मगर जैसे ही सम्मुख हो साक्षात्कार का क्षण होता है पृथ्वी अपनी धुरी पर घूम जाती है और स्वागत होता है रात्रि का, इसी तरह पिता के चारों ओर पृथ्वी चक्कर लगाती रहती है,  लगाती रहती है, लगाती रहती है और बस लगाती रह जाती है.....मैं जानती हूँ भाव कुछ भी हो पृथ्वी चक्कर ही लगाएगी और फिर अंधकार उसे घेर लेगा....मगर मैंने आगे बढ़ने के क्षण वो दरवाज़े बंद नहीं किये जिनसे होकर तुम मुझे ढूंढ ना सको... आखिर ये खुद को हारते आने का सफर कई सदियों से तय जो करती आ रही हूँ.....याद है जब आँखों ने कहा था ये शब्दों को मत पूछो,  ये झूठे हैं, ह्रदय की वेदना तो आँखों में बहती है, जिसके लिये इसलिए कलम के पास शब्दों की कोई प्रजाति ही नहीं....देवदार का वृक्ष आज तस्वीरों से झाँक कर हँस रहा था मेरे मन की उसी मटमैली खिड़की पर बैठा देख तू आज फिर हार गई.....अब लिखना छोड़ दिया है मैंने क्यूंकि उस आसमानी खिड़की से जिसके झंरोखे से झाँक मैं कहानियाँ बुनती थी उनमें भावनाओं की जंग आ गई है और कलम की नोंक ताप में पिघल गई है.... ऐसे में बस ये तुलसी का पौधा मुझसे बातें करता है किसी नवजात शिशु सी भीनी भीनी मासूमियत की सुगंध के साथ.....मोटी सी उसके डायरी के पन्नों पर लिखा ही रही थी सुधा कि पीछे से बेड पर किसी के थके हुये शरीर से ऑफिस बैग  किसी मुरझाये फूल सा धम्म से गिरा... इस आवाज़ को सुनते ही.. सजगता से कलम पकड़े हुये उन हाथों में कलम की जगह एक पानी के ग्लास ने ले ली...सुर्ख चूड़ियों से भरे उन गोरे हाथों से ग्लास लेता हुआ मयूर बड़े हास्य अंदाज़ में बोला "चूड़ियाँ और पेन कमाल का कॉम्बिनेशन मिला है मुझे यार ",  सुधा कहती भी तो क्या आखिर वो रोज़ ही उसके लौटने के समय तक उन शब्दों की गलियों में अकेली भटकती रहती थी... नज़रें झुकाये चुपचाप खड़ी मयूर के हाथों को देख रही थी शादी की वो अंगूठी कभी मयूर ने उतारी ही नहीं ही....सोच में डूबी हुई सुधा को मयूर ने हाथ पकड़कर खींचते हुये अपने पास बिठा लिया "कहिये तो आज आपकी इन प्यारी आँखों में गोते लगाकर ही पेट भर लें, ना दिल भरेगा ना पेट ".... सुधा भागकर उठ खड़ी हुई " जी...जी..वो मैं...मैं.. खाना लाती हूँ " मुड़कर मुस्कुराती हुई रसोईघर की तरफ बढ़ गई....
To be continued 
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