सूनी हुई शामें, जश्न शायद खत्म सा हो चला अब दास्तान ए गुरबत क्या छिड़ी, महफिलों से उठ गए लोग अजब अल (कला) है कि ,भीड़ में चेहरे पहचाने गए यूँही थोड़ी सी जरूरत क्या पड़ी हमें अचानक छुप गए लोग यूँ तो अबस (बेकार) थी नाराजगी अपनी हक जताने की कोशिश की और आब-ए-आईना लेकर चल दिये लोग jashn