मरकज़-ए-निगाह से जब उनकी भटक जाता हूँ अपनी ही बज़्म में नज़्म खुद की भूल जाता हूँ बड़ा महीं है कुछ भेड़ियों पर लिबादा - अ - आदम रहे महफ़ूज़-अ-इस्मत देख खँजर अख्ल़ाक भूल जाता हूँ इसलिए भी अब सहमे कदमों से आस्ताँ पार होती है इक अब्बा की आबरू हुकूमत का हुकुम-अ-कमंद है किताबी बात ये अमानती भूल जाता हूँ अभी चार-सू वहशियाना है आलम जिस्मानी भूख को इक ख़ाम सी नन्ही परी को दे ये दर्स अज्म बनाता हूँ अब सिर्फ़ खानकाही फकीरी ही नहीं यथेष्ट "आफताबी" भड़के वो शरर हर आवामी कलेजे में जो सदके में खुदा के भूल जाता हूँ सदा जरा हुकूमत तक पहुँचे...🙏 मरकज - बीच में , center महीं - महीन, बारीक इस्मत- इज्ज़त अख्लाक- शिष्टाचार आस्ताँ- दहलीज, चौखट हुकुम-अ-कमंद - फाँसी का फैसला