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मैं फिर इंसान बनूं, अपने परायों के लिए, आती है विप

मैं फिर इंसान बनूं, अपने परायों के लिए,
आती है विपत्ति, अपनों को आजमाने के लिए,
मंजर इस देश का, कुछ भयावह सा लगता है,
अपने ही घर में इंसान नही दिखता है,
सुनी हो गई वो गलियां, हो गई शहरें वीरान
अब तक खाक छान रहे थे, इन्ही गलियों में अनजान,
ऐसा सुनामी सा आया, कोरोना के भेष में,
सारी हैकड़ी निकल गई, अपने ही देश में,
थम गई है ज़िंदगी, करने लगे चौबंद
करने को कुछ नही, हो कर घरों में बंद,
सजी है सड़कें सुनी बिना शोर शराबा के
अनहोनी सी लगती है बिना किसी दस्तक के
जिन्हें हम जानते थे, इन्हीं गलियारों में,
वो कोई नही दिखता इंसान के बाजारों में,
सुबह शाम बैठे रहे खिड़की से झांकते रहे,
एक डर से डरकर, रात करवटें बदलते रहे,
कब ये रात हटेगी, नए सबेरे की आहट से
उन हाथों को फिर थाम सकूं, ऐसी विकट में,
ये देश भी अपना, लोग भी अपने,
जो है इंसानों के लिए,
मैं फिर इंसान बनूं, अपने परायों के लिए,
  
                  - Ashwin Srivastava(Adv)
                                   @LucknowDiary #coronavirus #india
मैं फिर इंसान बनूं, अपने परायों के लिए,
आती है विपत्ति, अपनों को आजमाने के लिए,
मंजर इस देश का, कुछ भयावह सा लगता है,
अपने ही घर में इंसान नही दिखता है,
सुनी हो गई वो गलियां, हो गई शहरें वीरान
अब तक खाक छान रहे थे, इन्ही गलियों में अनजान,
ऐसा सुनामी सा आया, कोरोना के भेष में,
सारी हैकड़ी निकल गई, अपने ही देश में,
थम गई है ज़िंदगी, करने लगे चौबंद
करने को कुछ नही, हो कर घरों में बंद,
सजी है सड़कें सुनी बिना शोर शराबा के
अनहोनी सी लगती है बिना किसी दस्तक के
जिन्हें हम जानते थे, इन्हीं गलियारों में,
वो कोई नही दिखता इंसान के बाजारों में,
सुबह शाम बैठे रहे खिड़की से झांकते रहे,
एक डर से डरकर, रात करवटें बदलते रहे,
कब ये रात हटेगी, नए सबेरे की आहट से
उन हाथों को फिर थाम सकूं, ऐसी विकट में,
ये देश भी अपना, लोग भी अपने,
जो है इंसानों के लिए,
मैं फिर इंसान बनूं, अपने परायों के लिए,
  
                  - Ashwin Srivastava(Adv)
                                   @LucknowDiary #coronavirus #india