फिर निशा सी घिर के आई ! एक ज्योति जल रही जो, विघ्नों में भी पल रही जो, जब उठी ईर्ष्या की आंधी, एक क्षण भी टिक ना पाई । फिर निशा सी घिर के आई ।। दूरियां संपूर्ण जग में, पाट ली थी एक पग में, जो विचारों में मिली वो, खाई, किन्तु भर ना पाई । फिर निशा सी घिर के आई ।। गेह के बाहर खड़ी जो, अश्रु से गीली पड़ी जो, सुबकियां लेती रही पर, कब किसे दी है दिखाई ? फिर निशा सी घिर के आई ।। फिर निशा सी घिर के आई ! एक ज्योति जल रही जो, विघ्नों में भी पल रही जो, जब उठी ईर्ष्या की आंधी, एक क्षण भी टिक ना पाई । फिर निशा सी घिर के आई ।।