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(लड़कियां) मेरा जन्म लेना भी यहां पर पाप माना जात

(लड़कियां)

मेरा जन्म लेना भी यहां पर पाप माना जाता है,
मेरी सांसों को तो माटी की तरह बेचा जाता है।

रुलाया जाता है मुझको और फिर मुझे,
कह कर पराया धन ठुकराया जाता है।

मुझे मार देते हैं मेरे जन्म से पहले,
लालछन लगाए जाते हैं जब कदम घर से भरा जाता है।


कुछ ऐसी ही है जिंदगी मेरी की दूजे के घर हुई तो पूजते,
खुदके घर पर मुझे, मेरे अस्तित्व को ललकारा जाता है।

ब्याहदी जाती हुं मैं बलिक होने से भी पहले,
मुझे एक घर से दूसरे को भेजा जाता है।


मां बाबा का आंगन छोड़ देखो व्यथा हाय,
गैर की चोखट पर मुझे सजाया जाता है।

(लड़के)

होते ही बड़ा मैं यूं झुकने लगता हूं,
अपनी ही आंखों में खुदको चुभने लगता हूं।


बेरोजगारी का दौर तो देखो साहब जरा,
मैं खुदकी ही खुदकी चीता को बुनने लगता हूं।

जाना होता है घर से दूर मुझको भी तो आखिर,
फर्क इतना की मैं दूजे परिवार नहीं किसी कार्यालय की चौखट पर मिलता हूं।


रोना भी चाहता हूं पर आसूं बजाए नहीं जाते मुझसे,
खुदके हृदय में अंतर ही अंतर मरते रहता हूं।

कभी मरती है मुझे महंगाई की और कभी आ लगती गले मार मुफलिसी की,
दर्द रातों में पूछो मेरे फटे मोजे से किस्तर एक ही काज में दो उंगली रखता हूं।


लगता हूं गलत मैं ही  की मेरी ही गलती है होती,
अरे तुम्हें मारा जाता एक बार मैं हर बार मरता हूं।


पत्थर हृदय नहीं है मेरा की शीशा तो आखिर वो भी है,
देखो कभी आकर कैसे टूटे कांच संजो के रखता हूं।

अरे ना पूछो की आखिर कैसे है जिंदगी मेरी,
सर्द रातों में मैं खुद जलकर आंच बनता हूं।

©Consciously Unconscious #Hope 


(लड़कियां)

मेरा जन्म लेना भी यहां पर पाप माना जाता है,
मेरी सांसों को तो माटी की तरह बेचा जाता है।
(लड़कियां)

मेरा जन्म लेना भी यहां पर पाप माना जाता है,
मेरी सांसों को तो माटी की तरह बेचा जाता है।

रुलाया जाता है मुझको और फिर मुझे,
कह कर पराया धन ठुकराया जाता है।

मुझे मार देते हैं मेरे जन्म से पहले,
लालछन लगाए जाते हैं जब कदम घर से भरा जाता है।


कुछ ऐसी ही है जिंदगी मेरी की दूजे के घर हुई तो पूजते,
खुदके घर पर मुझे, मेरे अस्तित्व को ललकारा जाता है।

ब्याहदी जाती हुं मैं बलिक होने से भी पहले,
मुझे एक घर से दूसरे को भेजा जाता है।


मां बाबा का आंगन छोड़ देखो व्यथा हाय,
गैर की चोखट पर मुझे सजाया जाता है।

(लड़के)

होते ही बड़ा मैं यूं झुकने लगता हूं,
अपनी ही आंखों में खुदको चुभने लगता हूं।


बेरोजगारी का दौर तो देखो साहब जरा,
मैं खुदकी ही खुदकी चीता को बुनने लगता हूं।

जाना होता है घर से दूर मुझको भी तो आखिर,
फर्क इतना की मैं दूजे परिवार नहीं किसी कार्यालय की चौखट पर मिलता हूं।


रोना भी चाहता हूं पर आसूं बजाए नहीं जाते मुझसे,
खुदके हृदय में अंतर ही अंतर मरते रहता हूं।

कभी मरती है मुझे महंगाई की और कभी आ लगती गले मार मुफलिसी की,
दर्द रातों में पूछो मेरे फटे मोजे से किस्तर एक ही काज में दो उंगली रखता हूं।


लगता हूं गलत मैं ही  की मेरी ही गलती है होती,
अरे तुम्हें मारा जाता एक बार मैं हर बार मरता हूं।


पत्थर हृदय नहीं है मेरा की शीशा तो आखिर वो भी है,
देखो कभी आकर कैसे टूटे कांच संजो के रखता हूं।

अरे ना पूछो की आखिर कैसे है जिंदगी मेरी,
सर्द रातों में मैं खुद जलकर आंच बनता हूं।

©Consciously Unconscious #Hope 


(लड़कियां)

मेरा जन्म लेना भी यहां पर पाप माना जाता है,
मेरी सांसों को तो माटी की तरह बेचा जाता है।