शंकर जी के दरबार, लगी कोरोना की गुहार झर- झर बरसता सावन सोमवार था, कैलाश पर्वत पर सजा भोले बाबा का दरबार था। देव गण सारे खड़े हाथों मे लिए पुष्प- हार थे, सोलह शृंगार मे सजी देवियाँ खड़ी लिए थाल थी। मै भी पहुंची मृत्यु लोक से कोरोना विपदा की मारी, थाल मे सजा हरित बेल पत्र कंधे पर कावंड - जल की सवारी। ज्यो विश्वंभर के नेत्र खुले मानों चहुँ ओर हलचल हुई, आशुतोष के एक मुस्कान से सर्वत्र हर हर महादेव की गूंज हुई। जैसे ही मैंने बेल पत्र बढ़ाया नटराज ने व्यंग बाण चलाया। बोले, ऐसी कौन सी विपदा गंगा से भी जलधारी, ऐसा कौन सा हुआ मंथन हलाह ल से भी विष धारी। ऐसा कौन सा असुर शंखचुड -अंधकासुर से उपद्रवी ऐसा क्या संकट पृथ्वी लोक पर गहराया, क्या मेरे त्रिशूल-डमरू तांडव का समय आया? हाथ जोड़ मै खड़ी रही शीश को झुकाए, अब कलियुग के असुर की क्या परिभाषा बतलाउ? हे, पशुपति विश्वनाथ कुछ समझ न आये कैसे समझाऊ, बंद हुए आपके सारे धाम अब तो घर ही बना चारो धाम, ऐसा पहला सावन बरस रहा हर शिव भक़्त काँवड जल चढ़ाने तरस रहा, धरा सिसकती मची त्राहि त्राहि है किसी युग मे ना हो ऐसी तबाही है एक अदृश्य असुर कोरोना की शक्ति हुई प्रबल है जिसके समक्ष जग निर्बल है। अब हे त्रिलोचन, हे त्रृलोकी त्रृनेत्र धारी बस आप को जपते वसुधा के नर- नारी, सुन मेरी गुहार, समझ गए अंतर्यामी कोरोना का प्रहार, जटाधारी मुस्काये बोले, इस कलियुग मे अंत कोरोना का है अटल , त्रिशूल बन भेदेगा मानव का संबल। अब मानव को करना होगा रिश्तों का पूजन, तब सत्कर्मों की गंगा बहेगी निर्मल होगा मानव मन। अति न दुष्कर्म की होने पाए सदा पावन रहे मानव जीवन। 🙏 लक्ष्मी यादव ©Laxmi Yadav शंकर जी का दरबार, #Sawankamahina