कर्मयोगी :::::::::::::: चिनगारी का खेल न खेलो, दुर्बल नहीं होता इंसान, युगों युगों से गिर कर उठा है, जिसने माना कर्म प्रधान। हाथों में है जादू उसके, जो नित रचना करता है, ईश की अनुपम महिमा बरसे, लड़ियों में मर्म पिरोता है। पतझड़ के साम्राज्य से क्या? चमन ऊसर हो जाएगा, खाक हो जाएगा नर, पर भाव अमर हो जाएगा। जागती रहती है विभावरी, ऊषा के दर्शन निमित्त, आंखे मींचे जग का मुसाफिर, होता रहता नित भ्रमित। मंजिल बस अब निकट है, सोंच भोगी सुस्ता लेता है, पर वैरागी लिए हाथ लट्ठ, अनवरत चलता रहता है। स्याह रात्रि की स्वर्ण सपन क्या? दिवस सफल कर पाएगा, खाक हो जाएगा नर, पर भाव अमर हो जाएगा। मुंडेरों पर बैठ कोकिल, मधुर गीत क्या गाती है? प्रिय की मधुर याद में क्या? आंख कभी भर आती है। नागफनीयों की शाखा पर, पुष्प नहीं कभी खिलते है, सर्प नहीं त्यागते अपना विष, जब चंदन से लिपटते है। श्रम से हाथ मिलें तो क्या? मरु में दरिया थम पाएगा, खाक हो जाएगा नर, पर भाव अमर हो जाएगा। समुद्र का गुण खारापन है, नहीं जाती लाख मिश्री घोलो, कृपण कभी क्या दान करेगा? भले उसे स्वर्ण से तोलो। लगन मेहनत भरे मंसूबे, कर्मयोगी को भाती है, माधव निर्मित डगर की सफर, बस उन्हें ही आती है। जन में जागी प्यास भाव क्या? अर्णव मिटा पाएगा, खाक हो जाएगा नर, पर भाव अमर हो जाएगा। ©Tarakeshwar Dubey कर्मयोगी #flowers