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वेदों में राधा का वर्णन पवित्र भक्ति- रूप में है ।

वेदों में राधा का वर्णन पवित्र भक्ति- रूप में है ।
वेदों में राधा का वर्णन पवित्र भक्ति- रूप में है । 👇 
इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते |
पिबा त्वस्य गिर्वण : ।। (ऋग्वेद ३/५ १/ १ ० )
अर्थात् :- हे ! राधापति श्रीकृष्ण ! यह सोम ओज के द्वारा निष्ठ्यूत किया ( निचोड़ा )गया है ।
वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं, उनके द्वारा सोमरस पान करो। यहाँ राधापति के रूप में कृष्ण ही हैं न कि इन्द्र ।
_________________________________________
विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस : 
सवितारं नृचक्षसं (ऋग्वेद १ /२ २/ ७ 
सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा ! जो राधा को गोपियों में से ले गए वह सबको जन्म देने वाले प्रभु हमारी रक्षा करें।👇

त्वं नो अस्या उषसो व्युष्टौ त्वं सूरं उदिते बोधि गोपा: जन्मेव नित्यं तनयं जुषस्व स्तोमं मे अग्ने तन्वा सुजात।। (ऋग्वेद -१५/३/२) ________________________________________
अर्थात् :- गोपों में रहने वाले तुम इस उषा काल के पश्चात् सूर्य उदय काल में हमको जाग्रत करें ।
जन्म के समय नित्य तुम विस्तारित होकर प्रेम पूर्वक स्तुतियों का सेवन करते हो ,
तुम अग्नि के समान सर्वत्र उत्पन्न हो । 👇

त्वं नृ चक्षा वृषभानु पूर्वी : कृष्णाषु अग्ने अरुषो विभाहि । 
वसो नेषि च पर्षि चात्यंह:कृधी नो राय उशिजो यविष्ठ ।। (ऋग्वेद - ३/१५/३ ) 
अर्थात् तुम मनुष्यों को देखो हे वृषभानु ! 
पूर्व काल में कृष्ण जी अग्नि के सदृश् गमन करने वाले हैं ।
ये सर्वत्र दिखाई देते हैं , और ये अग्नि भी हमारे लिए धन उत्पन्न करे इस दोनों मन्त्रों में श्री राधा के पिता वृषभानु गोप का उल्लेख किया गया है ।
जो अन्य सभी प्रकार के सन्देहों को भी निर्मूल कर देता है ,क्योंकि वृषभानु गोप ही राधा के पिता हैं। 👇
यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्धिन प्रेमयुक्त : -(अथर्व वेदीय राधिकोपनिषद ) 

१- यथा " राधा प्रिया विष्णो : 
(पद्म पुराण )

२-राधा वामांश सम्भूता महालक्ष्मीर्प्रकीर्तिता
(नारद पुराण )

३-तत्रापि राधिका शाश्वत (आदि पुराण )

४-रुक्मणी द्वारवत्याम तु राधा वृन्दावन वने । 👇
(मत्स्य पुराण १३. ३७ )

५-(साध्नोति साधयति सकलान् कामान् यया राधा प्रकीर्तिता: ) जिसके द्वारा सम्पूर्ण कामनाऐं सिद्ध की जाती हैं।
(देवी भागवत पुराण )

और राधोपनिषद में श्री राधा जी के २८ नामों का उल्लेख है। 
जिनमें गोपी ,रमा तथा "श्री "राधा के लिए ही सबसे अधिक प्रयुक्त हुए हैं।

६-कुंचकुंकुमगंधाढयं मूर्ध्ना वोढुम गदाभृत : (श्रीमदभागवत )

हमें राधा के चरण कमलों की रज चाहिए जिसकी रोली श्रीकृष्ण के पैरों से संपृक्त है (क्योंकि राधा उनके चरण अपने ऊपर रखतीं हैं ) यहाँ "श्री " शब्द राधा के लिए ही प्रयुक्त हुआ है । 
महालक्ष्मी के लिए नहीं।

क्योंकि द्वारिका की रानियाँ तो महालक्ष्मी की ही वंशवेल हैं। 
ऐसी पुराण कारों की मान्यता है वह महालक्ष्मी के चरण रज के लिए उतावली क्यों रहेंगी ?

रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभिर्यथार्भक : स्वप्रतिबिम्ब विभाति " -(श्रीमदभागवतम १०/३३/१ ६ कृष्ण रमा के संग रास  करते हैं। 
--जो कभी भी वासना मूलक नहीं था ।
यहाँ रमा राधा के लिए ही आया है।
रमा का मतलब लक्ष्मी भी होता है लेकिन यहाँ इसका रास प्रयोजन नहीं है।
लक्ष्मीपति रास नहीं करते हैं। 
भागवतपुराण के अनुसार रास तो लीलापुरुष कृष्ण ही करते हैं।👇
आक्षिप्तचित्ता : प्रमदा रमापतेस्तास्ता विचेष्टा सहृदय तादात्म्य -(श्रीमदभागवतम १०/३०/२ )

जब श्री कृष्ण महारास के मध्य अप्रकट(दृष्टि ओझल ) या ,अगोचर ) हो गए तो गोपियाँ विलाप करते हुए मोहभाव को प्राप्त हुईं।
वे रमापति (रमा के पति ) के रास का अनुकरण करने लगीं । 
यहाँ रमा लक्ष्मीपति विष्णु हैं।
वस्तुत यहाँ भागवतपुराण कार ने  श्रृंगारिकता के माध्यम से कृष्ण के पावन चरित्र को ही प्रकट किया है।।

©Surbhi Gau Seva Sanstan वेदों में राधा का वर्णन पवित्र भक्ति- रूप में है ।
वेदों में राधा का वर्णन पवित्र भक्ति- रूप में है । 👇 
इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते |
पिबा त्वस्य गिर्वण : ।। (ऋग्वेद ३/५ १/ १ ० )
अर्थात् :- हे ! राधापति श्रीकृष्ण ! यह सोम ओज के द्वारा निष्ठ्यूत किया ( निचोड़ा )गया है ।
वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं, उनके द्वारा सोमरस पान करो। यहाँ राधापति के रूप में कृष्ण ही हैं न कि इन्द्र ।
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विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस :
वेदों में राधा का वर्णन पवित्र भक्ति- रूप में है ।
वेदों में राधा का वर्णन पवित्र भक्ति- रूप में है । 👇 
इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते |
पिबा त्वस्य गिर्वण : ।। (ऋग्वेद ३/५ १/ १ ० )
अर्थात् :- हे ! राधापति श्रीकृष्ण ! यह सोम ओज के द्वारा निष्ठ्यूत किया ( निचोड़ा )गया है ।
वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं, उनके द्वारा सोमरस पान करो। यहाँ राधापति के रूप में कृष्ण ही हैं न कि इन्द्र ।
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विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस : 
सवितारं नृचक्षसं (ऋग्वेद १ /२ २/ ७ 
सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा ! जो राधा को गोपियों में से ले गए वह सबको जन्म देने वाले प्रभु हमारी रक्षा करें।👇

त्वं नो अस्या उषसो व्युष्टौ त्वं सूरं उदिते बोधि गोपा: जन्मेव नित्यं तनयं जुषस्व स्तोमं मे अग्ने तन्वा सुजात।। (ऋग्वेद -१५/३/२) ________________________________________
अर्थात् :- गोपों में रहने वाले तुम इस उषा काल के पश्चात् सूर्य उदय काल में हमको जाग्रत करें ।
जन्म के समय नित्य तुम विस्तारित होकर प्रेम पूर्वक स्तुतियों का सेवन करते हो ,
तुम अग्नि के समान सर्वत्र उत्पन्न हो । 👇

त्वं नृ चक्षा वृषभानु पूर्वी : कृष्णाषु अग्ने अरुषो विभाहि । 
वसो नेषि च पर्षि चात्यंह:कृधी नो राय उशिजो यविष्ठ ।। (ऋग्वेद - ३/१५/३ ) 
अर्थात् तुम मनुष्यों को देखो हे वृषभानु ! 
पूर्व काल में कृष्ण जी अग्नि के सदृश् गमन करने वाले हैं ।
ये सर्वत्र दिखाई देते हैं , और ये अग्नि भी हमारे लिए धन उत्पन्न करे इस दोनों मन्त्रों में श्री राधा के पिता वृषभानु गोप का उल्लेख किया गया है ।
जो अन्य सभी प्रकार के सन्देहों को भी निर्मूल कर देता है ,क्योंकि वृषभानु गोप ही राधा के पिता हैं। 👇
यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्धिन प्रेमयुक्त : -(अथर्व वेदीय राधिकोपनिषद ) 

१- यथा " राधा प्रिया विष्णो : 
(पद्म पुराण )

२-राधा वामांश सम्भूता महालक्ष्मीर्प्रकीर्तिता
(नारद पुराण )

३-तत्रापि राधिका शाश्वत (आदि पुराण )

४-रुक्मणी द्वारवत्याम तु राधा वृन्दावन वने । 👇
(मत्स्य पुराण १३. ३७ )

५-(साध्नोति साधयति सकलान् कामान् यया राधा प्रकीर्तिता: ) जिसके द्वारा सम्पूर्ण कामनाऐं सिद्ध की जाती हैं।
(देवी भागवत पुराण )

और राधोपनिषद में श्री राधा जी के २८ नामों का उल्लेख है। 
जिनमें गोपी ,रमा तथा "श्री "राधा के लिए ही सबसे अधिक प्रयुक्त हुए हैं।

६-कुंचकुंकुमगंधाढयं मूर्ध्ना वोढुम गदाभृत : (श्रीमदभागवत )

हमें राधा के चरण कमलों की रज चाहिए जिसकी रोली श्रीकृष्ण के पैरों से संपृक्त है (क्योंकि राधा उनके चरण अपने ऊपर रखतीं हैं ) यहाँ "श्री " शब्द राधा के लिए ही प्रयुक्त हुआ है । 
महालक्ष्मी के लिए नहीं।

क्योंकि द्वारिका की रानियाँ तो महालक्ष्मी की ही वंशवेल हैं। 
ऐसी पुराण कारों की मान्यता है वह महालक्ष्मी के चरण रज के लिए उतावली क्यों रहेंगी ?

रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभिर्यथार्भक : स्वप्रतिबिम्ब विभाति " -(श्रीमदभागवतम १०/३३/१ ६ कृष्ण रमा के संग रास  करते हैं। 
--जो कभी भी वासना मूलक नहीं था ।
यहाँ रमा राधा के लिए ही आया है।
रमा का मतलब लक्ष्मी भी होता है लेकिन यहाँ इसका रास प्रयोजन नहीं है।
लक्ष्मीपति रास नहीं करते हैं। 
भागवतपुराण के अनुसार रास तो लीलापुरुष कृष्ण ही करते हैं।👇
आक्षिप्तचित्ता : प्रमदा रमापतेस्तास्ता विचेष्टा सहृदय तादात्म्य -(श्रीमदभागवतम १०/३०/२ )

जब श्री कृष्ण महारास के मध्य अप्रकट(दृष्टि ओझल ) या ,अगोचर ) हो गए तो गोपियाँ विलाप करते हुए मोहभाव को प्राप्त हुईं।
वे रमापति (रमा के पति ) के रास का अनुकरण करने लगीं । 
यहाँ रमा लक्ष्मीपति विष्णु हैं।
वस्तुत यहाँ भागवतपुराण कार ने  श्रृंगारिकता के माध्यम से कृष्ण के पावन चरित्र को ही प्रकट किया है।।

©Surbhi Gau Seva Sanstan वेदों में राधा का वर्णन पवित्र भक्ति- रूप में है ।
वेदों में राधा का वर्णन पवित्र भक्ति- रूप में है । 👇 
इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते |
पिबा त्वस्य गिर्वण : ।। (ऋग्वेद ३/५ १/ १ ० )
अर्थात् :- हे ! राधापति श्रीकृष्ण ! यह सोम ओज के द्वारा निष्ठ्यूत किया ( निचोड़ा )गया है ।
वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं, उनके द्वारा सोमरस पान करो। यहाँ राधापति के रूप में कृष्ण ही हैं न कि इन्द्र ।
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विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस :

वेदों में राधा का वर्णन पवित्र भक्ति- रूप में है । वेदों में राधा का वर्णन पवित्र भक्ति- रूप में है । 👇 इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते | पिबा त्वस्य गिर्वण : ।। (ऋग्वेद ३/५ १/ १ ० ) अर्थात् :- हे ! राधापति श्रीकृष्ण ! यह सोम ओज के द्वारा निष्ठ्यूत किया ( निचोड़ा )गया है । वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं, उनके द्वारा सोमरस पान करो। यहाँ राधापति के रूप में कृष्ण ही हैं न कि इन्द्र । _________________________________________ विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस : #विचार