कविता की डोर पकड़कर झूलती हूँ तुम्हारी भूली मोहब्बत में, ग़ज़ल के दामन में अपने दर्द बाँट लेती हूँ। उन लम्हों की दास्ताँ लिख लेती हूँ जो बीते नहीं हमारे बीच, पर मेरी कल्पना में हमेशा से 'हमारी कहानी के पहलू' बनकर साँसें ले रहे हैं। (शेष कैप्शन में पढ़ें) हाँ, तुम हो यहीं, मेरे इनबॉक्स के पुराने मेसेजीज़ में, छुपे हुए से कहीं। तुम्हारे साथ बीते उन पलों को मिटाने की हिम्मत मैं आज तक जुटा नहीं पाई हूँ। तुम्हें ब्लॉक करने का साहस मुझमे न तब था और न आज है, पर ज़रूरी था तुम्हारा न दिखना मुझे। किसी न किसी तरीके से तुम्हारी ख़ैरियत का पता तो आज भी लगा ही लेती हूँ। बस अब तुमसे बात करने से कतराती हूँ। सोचती रहती हूँ कि क्या तुम्हें भी मेरी याद सताती है? काश! कोई इशारा तुम्हारी ओर से भी मिल जाता। क्या तुम्हारा भी मन झिझकता है मुझे मेसेज करने से? जानती हूँ कि कभी तुमने पहल नहीं की है। हमेशा मैं ही तुम्हें परेशान किया करती थी। और सच बोलूँ तो उस वक़्त तो तुमसे कुछ भी शेयर करने से नहीं डरती थी। फिर चाहे वो दिन में तुम्हारी बिज़ी मीटिंग हो या आधी रात में ऊँघते तुम्हारे सपने हों। ख़ैर! आजकल यादों के अल्फ़ाज़ बनकर तुम उतर आते हो मेरी डायरी में। वहीं महफ़ूज़ रहता है मेरा दिल और 'हमारी' मोहब्बत।