नफरतों के साये में जो मोहब्बत पनपे तो गज़ब हो जाए, जिहादी को काफिर से जो हो जाए इश्क़ तो गज़ब हो जाए. बयाबान वो बंजर ज़मीं पे सहाब का बेइन्तेहा बरसना, कल्ब से निकल वो हो जाए अश्क़ तो गज़ब हो जाए. गलियों में ख़ूँ-रेज़ वो हथियारों के जत्थों का काफिला, मुस्तफा का बिंदु से जो हो जाए इश्क़ तो गज़ब हो जाए. मंज़र-ए-ताराज देखती है वो सहमी हुई चश्म-ए-तर, उफ़ुक़ पे दीदार-ए-अहबाब जो लाए अश्क़ तो गज़ब हो जाए. फिज़ा भी इस जहां में अब थोड़ी सहमी सी बहती है, पैगंबर जो इन हवाओं में घोल जाए इश्क़ तो गज़ब हो जाए. कश्मीर में नफरत के नारों का इंतिहा-ए-अदावत से लगना , हसीन इन वादियों में जो हो शुरू-ए-इश्क़ तो गज़ब हो जाए. The ghazal is inspired from the question: What if a love story brews in Kashmir? सहाब-cloud बेइन्तेहा- limitless कल्ब- heart ख़ूँ-रेज़- खून बहाने वाले मंज़र-ए-ताराज- scene of destruction