क्या मुझको ये सब शोभा देता है, क्या मुझ पे ये सब अब फ़बता है। जो भी है, अब फर्क नहीं पड़ता है, उसको पाना ही मक्सद है बन गया, मैं आया था लेखक बनने को यहाँ, बस एक ठरकी बन कर रह गया।4। एक नहीं तीन-तीन ज़िन्दगी यहाँ, अब तो हो कर बर्बाद रहेगी। मेरे कपटी मन को इक मनचाहा, है कमसीन सा शिकार मिल गया। मैं आया था लेखक बनने को यहाँ, बस एक ठरकी बन कर रह गया।5। कुछ बातें जब सुनने में आती है तो दिल को बड़ी ठेस पहुँचती है। सच झूठ का तो नहीं पता, पर मन खिन्न ज़रूर हो जाता है। आजकल दुनिया में, हमारे आस-पास ऐसे कई घर उजड़ रहे हैं। लोग सही और गलत का फर्क भूल गये हैं। एक अन्धी चाहत ने सब कुछ बर्बाद कर दिया है। मैं किसी विशेष लेखक पे टिप्पणी नहीं कर रहा पर एक लेखक की जगह पे खुद को रख के ये कविता लिखने की कोशिश की है। ये सच हर जगह है, चाहे वो ऑफ़िस में हो, जिम में हो, बाहर हो, रिश्तेदारों में हो, दोस्तों में हो, या कहीं भी। आपको लगता है किसी को कुछ पता नहीं चलता, पर आपको नहीं पता, कि कुछ बातें चिंगारी की तरह फैलती हैं और फिर सब कुछ खाक़ कर देती है। सबसे पहले बनी बनाई इज़्ज़त, फिर रिश्ता और धीरे-धीरे बाकी सब कुछ। और मैं ये किसी मर्द पे ही टिप्पणी नहीं कर रहा। पर ज्यादातर मर्द, औरत, लड़के, लड़कियाँ, आजकल इसी ट्रेंड की तरफ बढ़ रहे हैं। जो की क्षणिक सुख तो बहुत देते हैं पर ज़िन्दगी भर का गम और बदनामी भी दे जाते हैं जो तभी समझ आती है जब इंसान ठोकर खा चुका होता है।