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।।लौह श्रंखला।। ऐ गर्विता, क्यों नहीं गढ़ती तू खु

।।लौह श्रंखला।।

ऐ गर्विता, क्यों नहीं गढ़ती तू खुद के आयाम?
क्यों नहीं करती तू निर्जीव जीवन का प्रतिकार?
वह स्वर्ण पिंजर जो कि मिला तुझे उपहार
तोड़ उस पिंजरे को, कर खुद का अविष्कार
दूर नहीं जाना तुझे अपनी कोमलता से,
पर दूर जाना है तुझे ,
अपनी अंधी अनुसरणशीलता से
नहीं फेकनी तुझे खुद की भावुकता,
पर विवेक से फेंकनी है खुद की अज्ञानता
क्यों कभी "क्यों" नहीं आया तेरी आवाज से?
क्या तू भिज्ञ ,थी जवाब से धर्म और समाज के,
क्या शून्य था तेरा विवेक?
या लगा दी गई थी ,"लौह श्रंखला"
स्याह !समाज ना सह पाता
एक साहसी अबला,
नहीं पाई तू रवि की रोशनी
नही छुआ तुझे पवन ने ,नही घूमी तू वीरान बंजर में 
क्योंकि तू तो कैद थी स्वर्ण पिंजर में ।

©Alka Pandey 
  Lalit Saxena Anshu writer ram singh yadav Vandana Mishra Sudha Tripathi