कभी मैं बुंद हूं! कभी मैं सिन्धु हूं! कभी मैं झील हो जाऊं! कभी झरना बन! झर झर गिरता जाऊं! मैं दरिया हूं सागर से.. हमको मिलना है! बना मैं राह जीवन का! मैं तो बस बहती ही जाऊं मैं इतराऊं मैं इठलाऊं! मैं करती प्रेम सागर से! मैं पत्थर से भी टकराऊं! ये माना दूर है मंजिल मेरी! मगर हमको तो चलना है! मेरे किस्मत में क्या है?? कैसे मैं बता समझ पाऊं?? मिल कर मैं सागर से.. खारी हो गई हूं मैं!!!! ईश्वर की लीला को.. कैसे मैं समझ पाऊं???? हरी मैं भाप बनकर.. क्यों न प्रेम में ही समा जाऊं!? ✍️ हरीश वर्मा हरी 8840812718 मैं बिन्दु हूं..