जलता रूह ये दामन में जो छींटे उतरे है, किसी के लब्जों के तीर बिखरे है, किस नक्काशी से सिर गर्दन से उतारे हैं, की खंजर पर हाथों के निशान भी हमारे है, अरे कत्ल भी हमारा ही हुआ है भरे समाजों में, और कटघरे में सजा को रूह भी हमारे है। कई वर्षों से उम्मीद थी डोली में बैठने की, क्या खबर थी की डोली मर्दों की सेज होगी, रोज रात खुद का सौदा बंद तकिए तक होता है, आंसू भरी निगाह से चंद सिक्कों का सफर होता है, दर्द भी हमें ही होती है रोज बंद दरवाजे के पीछे, और मलहम लगाने वाले हाथ भी हमारे ही है। मां के आंगन से लेके पति से ससुराल तक, नीलाम होती सुबह से जिस्म शाम तक, ना अपनों का साया ना परायों की दुआएं, हक छीन लिया है सर ढकने को पल्लू तक, अब दिन की शराफत भी हमसे डरती है, और रात को शरीफों से सहमे हुए शाम भी हमारे ही है। बस सबके भगवान हम पर इतना करम कर दो, जिंदगी बेइज्जत ही मिली इज्जतदार मौत कर दो, स्वर्ग न सही नर्क ही हमे मुकर्रर कर दो, शायद इस नर्क से वो नर्क कही ज्यादा सुंदर हो, की लपटों में झुलसे हुए कफ़न पर भी हम ही है, और जमाना जाने है की जलाने वाले भी हमारे ही है।— % & जलता रूह #yqdidi #yqbaba #yqquotes #yqaestheticthoughts #yqdada #yqrooh #yqbhaskar