वह भोजन का प्रथम कौर जब जिह्वा पर रखते तुम बाँध टकटकी तुम्हें ताकती कैसा अनुभव करते तुम क्या माँग रही ये दृष्टि हमारी भावों से वो सब कहते तुम अब ये खूब समझते तुम तीखा,मीठा,नमक आदि सब डाला चुन चुन मानक में कहीं मसाले की गमगम थी कहीं मलाई पालक में बस चित्र तुम्हारा था मानस पर कैसे भोजन ये चखते तुम अब ये खूब समझते तुम आशाएं कितनी पकीं आँच पर धीमी धीमी महकी सौंधी सी स्वेद समेटा मुख काँछ कर पल्लू की एक किनारी थी ताप भाप सब सुखद लगा जब सोचा कैसे हँसते तुम अब ये खूब समझते तुम अहा! रस आ गया भोज का यदि मुख भावों से कहते तुम पारितोषिक मिल जाता मुझको अधरों से कुछ ना कहते तुम हर घर की है यही कहानी क्या इतना भी करते तुम अब ये खूब समझते तुम ★★★ ©प्राची मिश्रा #poetessprachimishra ©Prachi Mishra #Thoughts