दिन से तुम्हारा रिश्ता हैं और रात मेरी लगती हैं जहां मिलते थे हम,वो शाम न जाने किसकी थी। दिन डूब जाता हैं रोज, और रात गहरी लगती हैं गुजरी हैं नाम किसी के,शाम न जाने किसकी थी। दिन तन्हा रहता है जब रात भी अकेली लगती हैं अब भी ख्वाबो में आती हैं,शाम न जाने किसकी थी। लोकेंद्र की कलम से ✍️ #लोकेंद्र की कलम से