तुमने अगर किसी को प्रेम किया है, तो तुम जान ही लोगे कि वह शरीर नहीं है। ये कसौटी है कि तुमने प्रेम किया या नहीं। अगर तुम्हें अपनी प्रेयसी में, या प्रीतम में, या अपने बेटे में, या अपनी पत्नी में, या अपने मित्र में सिर्फ शरीर दिखायी पड़ता है, तो तुमने प्रेम नहीं किया। अगर तुमने प्रेम किया होता तो तुम पाते कि शरीर है, लेकिन तुम्हारा प्रेम यह शरीर मात्र नहीं है। शरीर के भीतर, शरीर से बहुत बड़ा बहुत अनंतगुना है। शरीर क्षणभंगुर है, भीतर जो है वह सनातन है, शाश्वत है। भीतर तो जो है वह समस्त सृष्टि का सार है, वह तो चैतन्य का आखिरी शिखर है। लेकिन, उसे देखने के लिए पूरे के पूरे को देखने की क्षमता चाहिए। प्रेम पूरे को देखता है। वह विहंगम दृष्टि है। जैसे पक्षी आकाश में उड़ता है और वहां से देखता है नीचे, सब इकट्ठा दिखायी पड़ता है। तुम रास्ते से गुजरते हो, एक झाड़ दिखायी पड़ा, फिर दूसरा, फिर तीसरा, फिर चौथा--हिज्जे करते हो। पक्षी उड़ता है आकाश में, सारे झाड़ एक साथ दिखायी पड़ते हैं। प्रेम ऊंचाई है। विहंग की तरह आकाश में उड़ना है। वहां से जीवन को देखना है। वहां से जीवन की जो परिपूर्णता है, वही परमात्मा है। जिसने समग्रता को जाना उसने परमात्मा को जाना, जिसने खंड-खंड को जाना वह संसार से आगे न जा सका। यद्यपि खंड उसी अखंड के हैं, लेकिन वह अखंड खंड नहीं है। इस बात को ठीक से समझ लोग। अब खंड उसी अखंड के हैं, लेकिन वह अखंड सभी खंडों के जोड़ से ज्यादा है। वह खंडों में प्रगट हुआ है, खंडों में समाप्त नहीं है। वह खंडों में उतरा है। खंडों की सीमा है, वह असीम है। जैसे तुम्हारे आंगन में आकाश उतरा है। निश्चित ही आकाश उतरा है, लेकिन तुम्हारा आंगन सारा आकाश नहीं है। तुम्हारे आंगन में जो है वह भी आकाश है, लेकिन आकाश तुम्हारे आंगन पार भी है। तुम्हारे शरीर में जो उतरा है, वह सारा परमात्मा नहीं है, वह सारा आकाश नहीं है। यद्यपि वह भी परमात्मा है। इतना ही आत्मा और परमात्मा का फर्क है। आत्मा का अर्थ है, आंगन में घिरा आकाश। परमात्मा का अर्थ है, दीवालें तोड़ दीं, आंगन मिट गया। आंगन को मिटाने के लिए कुछ भी तो नहीं करना पड़ता, सिर्फ उसको बनानेवाली दीवालें तोड़ देनी पड़तीं हैं। दीवालों के कारण भ्रांति पैदा होती थी, दीवालों के विसर्जित हो जाने पर भ्रांति विसर्जित हो जाती है। भेद अप्रेम है। अभेद प्रेम है। और अखंड को देखने की बात है। अखंड को देखने के लिए तुम्हें ऊंचे जाना पड़े। जमीन पर चल सकोगे, आकाश में उड़ना पड़े! अखंड को जानने के लिए तुम्हें खंड करने की प्रक्रिया को त्यागना पड?। विचार का त्याग प्रेम है, और विचार का त्याग ही ध्यान है। निर्विचार हो जाना ध्यान है, निर्विचार हो जाना प्रेम है। कोई विचार न रह जाए तुम्हारे भीतर। जब तुम प्रेम में पड़ते हो तब विचार कम हो जातेहैं। कभी अपने प्रेम के पास बैठे हो, तब तुम पाओगे कि मौन घेर लेता है, चुपचाप हो जाते हो, कहने को कुछ भी नहीं रह जाता। या, कहने को इतना होता है कि कैसे कहा जा सकता है? बोलने में अड़चन मालूम पड़ती है, क्योंकि लगता है, बोले कि झूठ हो जाएगा; बोले, तो पाप हो जाएगा; बोलने से ही बात की जो गरिमा है, खो जाएगी, नष्ट हो जाएगी। वह जो भीतर अभी उमग रहा है, वह जो भीतर सभी सघन हो रहा है, उसके लिए शब्द बाहर प्रकट न कर पाएंगे--शब्द बड़े असमर्थ हैं, सीमित हैं। उनका उपयोग बाजार में हैं, दूकान है, दफ्तर में है, काम-धाम में है--प्रेम में नहीं तो, जब भी दो व्यक्ति पास मौन में बैठे हो, जानना गहन प्रेम हैं। या, जब भी दो व्यक्ति प्रेम में हों, तब तुम जानोगे कि गहन मौन में हैं। प्रेमी चुप हो जाते हैं। और अगर तुम चुप होने की कला सीखने जाओ, तो तुम प्रेमी हो जाओगे। फिर तुम जिसके पास भी चुप बैठ जाओगे, उससे तुम्हारे पास के संबंध जड़ जाएंगे। अगर तुम वृक्ष के पास बैठ गए तो वृक्ष से तुम्हारा संवाद हो जाएगा, और तुम सरिता के पास मौन बैठ गए तो सरिता से तुम्हारा तालमेल हो जाएगा, और तुमने अगर मौन से आकाश के तारों को देखा तो तुम अचानक पाओगे, जुड़ गए तारों से, कुछ अदृश्य द्वार खुल गए, कुछ पर्दे हट गए। प्रेम है अखंड का दर्शन। अखंड के दर्शन के लिए तुम्हें मौन होना जरूरी है, क्योंकि मौन में ही तुम अखंड होते हो, तुम्हारी दीवालें गिर जाती हैं आंगन की--तुम खुद आकाश जैसे हो जाते हो। मुझे इस भांति कहने दो कि अगर परमात्मा को जानना है तो परमात्मा जैसे होना पड़ेगा। प्रेम में व्यक्ति परमात्मा हो जाता है। प्रेम में परमात्मा ही रह जाता है--बाहर-भीतर, ऊपर-नीचे, सभी दिशाओं में। लहरें खो जाती हैं, सागर ही शेष रहता है। जिनके जीवन में प्रेम नहीं है उनके जीवन में संसार है। फिर जीवन में धन होगा, पद होगा मान-मर्यादा होगी, प्रतिष्ठा होगी, यश होगा, महत्वाकांक्षा होगी--हजार पागलपन होंगे--बस प्रेम नहीं होगा; ©मलंग #prem_nirala_