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ऐ भटके हुए मुसाफ़िर! कभी मेरी गली आ देख। बरसों से

ऐ भटके हुए मुसाफ़िर! कभी मेरी गली आ देख।
बरसों से बैठी रही तेरे ही इंतज़ार में बहते हुए मेरे अश्कों की धारा देख।

अधूरी मोहब्बत के चाहत में मैं भटकती रही।
दूर तक ऐसे अंजान रास्तों पर भटकती रही।

तड़पती अंजान राहों पर मेरा अंजान सफ़र।
छोड़ मुझे गया इस अपनी ही तपती रेगिस्तान भूमि पर।

शायद आपको अपनी मोहब्बत की कश्ती नज़र आ गया।
आपने मोहब्बत की साहिल को पाकर अपनी मंज़िल पा लिया।

चेहरा मेरा अंजान राहों की तरह उदास है।
इनको भी मेरी तरह मोहब्बत की प्यास है।

छोड़ अब अपने दुखों का सैलाब दूर होकर मैं तुझसे जुड़ी महसूस कर रही हूंँ।
मैं अंजान मुसाफ़िर अब तेरे अंजान शहर से तन्हाई में ही चल पड़ी हूंँ।

— % & ♥️ Challenge-846 #collabwithकोराकाग़ज़

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ऐ भटके हुए मुसाफ़िर! कभी मेरी गली आ देख।
बरसों से बैठी रही तेरे ही इंतज़ार में बहते हुए मेरे अश्कों की धारा देख।

अधूरी मोहब्बत के चाहत में मैं भटकती रही।
दूर तक ऐसे अंजान रास्तों पर भटकती रही।

तड़पती अंजान राहों पर मेरा अंजान सफ़र।
छोड़ मुझे गया इस अपनी ही तपती रेगिस्तान भूमि पर।

शायद आपको अपनी मोहब्बत की कश्ती नज़र आ गया।
आपने मोहब्बत की साहिल को पाकर अपनी मंज़िल पा लिया।

चेहरा मेरा अंजान राहों की तरह उदास है।
इनको भी मेरी तरह मोहब्बत की प्यास है।

छोड़ अब अपने दुखों का सैलाब दूर होकर मैं तुझसे जुड़ी महसूस कर रही हूंँ।
मैं अंजान मुसाफ़िर अब तेरे अंजान शहर से तन्हाई में ही चल पड़ी हूंँ।

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