भज मन! चरण-कँवल अविनाशी। जेताई दीसै धरनि गगन विच, तेता सब उठ जासी।। इस देहि का गरब ना करणा, माटी में मिल जासी।। यों संसार चहर की बाजी, साझ पड्या उठ जासी।। कहा भयो हैं भगवा पहरया, घर तज भये सन्यासी। जोगी होई जुगति नहि जांनि, उलटी जन्म फिर आसी।। अरज करू अबला कर जोरे, स्याम! तुम्हारी दासी। मीराँ के प्रभु गिरधर नागर! काटो जम की फांसी।। अर्थ मीराबाई इस पद में कहती हैं कि हे मन तू कभी नष्ट ना होने वाले भगवान् के चरणों में ध्यान धरा कर। तुझे इस धरती और आसमान के बीच जो कुछ दिखाई दे रहा हैं। इसका अंत एक दिन निश्चित हैं। यह जो तुम्हारा शरीर हैं इस पर बेकार में ही घमंड कर रहे हो, यह भी एक दिन मिटटी के साथ मिल जाएगा। यह संसार चौसर के खेल की तरह हैं। बाजी शाम को खत्म हो जाती हैं।उसी प्रकार यह संसार नष्ट होने वाला हैं। भगवान् को प्राप्त करने के लिए भगवा वस्त्र धारण करना काफी नही हैं। इसके साथ ही मीरा ने इस पद के माध्यम से लोगों को यह भी बताने की कोशिश की है कि – सन्यासी बनने से न ही ईश्वर मिलता हैं, न जीवन मरण के इस चक्कर से मुक्ति मिल पाती है। इसलिए अगर ईश्वर को प्राप्त करने की युक्ति नहीं अपनाई तो इस संसार में फिर से जन्म लेना पड़ेगा। वहीं मीराबाई ने अपने प्रभु से हाथ जोड़कर विनती करते हुए कहा है कि – मै तुम्हारी दासी हूं, कृपया मुझे जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति दिलवाओ। (मेरे राम) ©Himanshu Tomar #मेरे_राम #मीराबाई #मन #भगवा #सन्यासी #महंत #दास