अतिथि सत्कार (लघु कथा के रूप में अनुशीर्षक 👇में) अतिथि सत्कार सेवा भारतीय संस्कृति का परम कल्याणकारी व्रत है। शास्त्रों में वर्णित है। मातृ देवो भव ! पितृ देवो भव ! अतिथि देवो भव ! आचार्य देवो भव ! अतिथि भगवान का स्वरूप है। इसीलिए कहा भी गया है- ना जाने किस भेष में मिल जाए भगवान। यहां महाभारत में वर्णित एक कबूतर के अतिथि सत्कार सेवा व्रत का आख्यान प्रस्तुत है, जिसमें उस कबूतर ने अतिथि के भोजन के लिए अग्नि में अपनी ही आहुति दे दी। किसी बड़े जंगल में दुष्ट स्वभाव वाला एक बहेलिया रहता था। वह प्रतिदिन जाल लेकर वन में जाता और परिवार के पालन पोषण के लिए पक्षियों को मारकर उन्हें बाजार में बेच दिया करता था। उसके इस भयानक तथा क्रूर कर्म के कारण उसके मित्रों तथा संबंधियों ने उसका परित्याग कर दिया था, किंतु उस मूढ़ को अन्य कोई कर्म अच्छा ही नहीं लगता था। एक दिन वह भयानक वन में घूम रहा था, तभी बहुत जोर की आंधी के साथ-साथ मूसलाधार वर्षा होने लगी। आंधी और वर्षा के प्रलयकारी प्रकोप से सारे वनवासी जीव त्रस्त हो उठे। सर्दी से ठिठुरते और इधर-उधर भटकते हुए बहेलिए ने शीत से पीड़ित तथा पृथ्वी पर पड़ी हुई एक कबूतरी को देखा और उसे उठाकर अपने पिंजरे में बंद कर लिया। चारों ओर घने अंधकार के कारण बहेलिया एक सघन वृक्ष के नीचे पत्तों का बिछौना कर सो गया। उसी वृक्ष पर एक कबूतर निवास करता था, जो अचानक आई विपत्ति के समय में दाना चुगने गई और अभी तक वापस न लौटी अपनी प्राण प्रिया कबूतरी के लिए विलाप कर रहा था। उसका करुण क्रंदन सुनकर पिंजरे में बंद कबूतरी ने उसे द्वार पर आए हुए बहेलिए के आतिथ्य सत्कार की सलाह देते हुए कहा कि ‘हे प्राण-प्राणेश्वर ! मैं आपके आत्मकल्याण की, आत्मोन्नति की बात बता रही हूं, उसे सुनकर आप वैसा ही कीजिए। इस समय विशेष प्रयास करके एक शरणागत प्राणी की आपको रक्षा करनी है। यह व्याध आपके गृह-द्वार पर आकर ठंड और भूख से बेहाल होकर सो रहा है, आप इसकी सेवा कीजिए, मेरी चिंता मत कीजिए।’ शास्त्र कहता है- ‘‘सेवा हि परमो धर्मः’’। सेवा ही परम धर्म है। सेवा के द्वारा मान-प्रतिष्ठा-वैभव की प्राप्ति तो होती ही है, अविनाशी ब्रह्म के गोलोकधाम की प्राप्ति भी सहज में ही हो जाती है। पत्नी की धर्मानुकूल बातें सुनकर कबूतर ने सामथ्र्यानुसार विधिपूर्वक बहेलिए का सत्कार किया और उससे कहा- ‘आप हमारे अतिथि हैं, बताइए मैं आपकी क्या सेवा करूं?’ बहेलिए ने कबूतर से कहा-‘इस समय मुझे सर्दी के कारण अत्यधिक कष्ट है, अतः हो सके तो इस दुःसह ठंड से मुझे बचाने का कोई उपाय कीजिए।’ कबूतर ने शीघ्र ही बहुत से सूखे पत्ते लाकर बहेलिए के पास एकत्रित कर दिए और यथाशीघ्र कुम्हार के घर से जलती लकड़ी को चोंच में दबाकर लाकर पत्तों को प्रज्वलित कर दिया। आग तापकर बहेलिए की शीतपीड़ा शांत हो गई। तब उसने कबूतर से कहा-‘मुझे अब भूख सता रही है। मुझे भोजन की इच्छा है; अतः कुछ भक्षणीय पदार्थ की व्यवस्था कीजिए।’ यह सुनकर कबूतर उदास होकर चिंता करने लगा। थोड़ी देर विचार करते हुए उसने सुखे पत्तों में पुनः आग लगाई और हर्षित होकर कहने लगा - ‘मैंने ऋषियों, महर्षियों, तपस्वियों, देवताओं, पितरों और महानुभावों के मुख से सुना है कि अतिथि की सेवा-पूजा करना महान धर्म होता है, अतः आप मुझे ही भोजन रूप में स्वीकार करने की कृपा कीजिए। इतना कहकर तीन बार अग्नि की प्रदक्षिणा करके वह कबूतर आग में कूद पड़ा। महात्मा कबूतर ने देह-दान द्वारा अतिथि सत्कार सेवा व्रत का ऐसा ज्वलंत एवं उज्ज्वल आदर्श प्रस्तुत किया कि व्याध ने उसी दिन से अपना निंदित कर्म सदा-सदा के लिए छोड़ दिया। कबूतर तथा कबूतरी दोनों को आतिथ्य धर्म के पालन से उत्तम लोक प्राप्त हुआ। दिव्य रूप धारण कर श्रेष्ठ विमान पर बैठकर वह पक्षी अपनी प्राण प्रिया सहित स्वर्गलोक को चला गया और अपने सत्कर्म के कारण पूजित हो वहां आनंद पूर्वक रहने लगा।