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एक नामुकम्मल दास्तां (भाग: चतुर्थ ) अनुशीर्षक मे

एक नामुकम्मल दास्तां

(भाग: चतुर्थ )

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**ये भाग 'मध्यांतर' है। सूकून से पढ़ियेगा। 'दुनिया से दूर जा रहा हूँ, माँ तेरे पास आ रहा हूँ। मैं भी ये गीत गा रहा हूँ, माँ शेरावालिये,माँ मेहरावालिये, ऊँचे पहाड़ावालिये।'

बस यही गुनगुना रहा था वो, और चलता जा रहा था लगातार। अट्ठारह किलोमिटर लम्बी चढ़ाई थी माँ वैष्णो देवी के द्वारे की। पैरों में तक़लीफ हो रही थी पर मन अडिग था उसका। एक हाथ में सिंदूर की डिबीया थी छोटी सी जिसे वो कस के हाथों में दबा कर आगे बढ़ रहा था माता रानी से मिलने। उसे शायद कोई होश ही नहीं था। जुबां और दिल में माँ का नाम था और यादों में बीते हुए दस महीने।

हाँ दस महीने हो चुके थे उस दिन को जिसे वो कभी भूल नहीं सकता था। दिल टूटना क्या होता है, ये तो उसे पता था। पर दिल चकनाचूर हो जाने पर जो ज़ख्म पल-दर-पल सीने में चुभते हैं, उस दर्द का अहसास उसे पहली बार हुआ था। जिस माँ से वो कभी कुछ नहीं छुपाता था, आज अपने आँसूओं को महफूज़ रखने की नाकाम कोशिश करता रहता था ताकी जिस दर्द से वो गुज़र रहा था, उसका इल्म ना हो उसकी माँ को। पर वो तो माँ थी और उन्हे सब पता था कि उनका बेटा किस दर्द से गुज़र रहा है। उन्हे बस हर वक़्त यही डर सताता था कि कहीं उनका लाडला बेटा कुछ कर ना ले खुद को। वो खुद अपने आँसू सबसे छुपाती थी और भगवान के सामने जा कर अपने बेटे की सलामती की दुआयें माँगा करती थी। ऐसा नहीं था कि उसको कुछ पता नहीं था अपनी माँ की मनोस्तिथि के बारे में, पर वो तो मानो असहाय हो चुका था। उसके सीने में दिल की जगह एक निर्वात उत्पन्न हो चुका था जिसने उसके शरीर की सारी उर्जा सोख ली थी और उसे अन्दर से खोखला बना दिया था। एक ऐसा निर्जीव शरीर जिसमे सांसें तो थी, मगर फिर भी वो जीवन-विहीन था। क्यूँकी उसकी जान तो जा चुकी थी।

वो दो दिन तक बिस्तर से उठा नहीं था। बस रोता रहता, तकिये में मुँह छुपा पर, कि कहीं किसी को उसके आँसू दिख ना जाए। जब आँसू सूख जाते तो सो जाता। माँ से उसकी हालत छिपी नहीं थी। वो पूछ-पूछ कर थक गयी थी लेकिन वो कुछ बताता ही नहीं था। पर आखिर ये सब कितने दिन चलता। उसे नौकरी पर भी तो जाना था। तीन दिन बाद वो बिस्तर से उठा और ऑफ़िस जाने के लिये तैयार हो गया। अब या तो वो रोते-रोते ऊब चुका था या उसकी आँखों के आँसू मर चुके थे। माँ के पाँव छुए और निकल गया घर से। दिन भर वो व्यस्त रहा अपने काम मे। ना कुछ खाया ना किसी से बात की। बस काम में मग्न रहा। आखिर मशिनें भी कुछ बोलती है? किसी के बात करती हैं? कुछ खाती हैं? वो भी बस कुछ ऐसा ही था। पर क्यूँ? शायद इसिलिए कि वो कमज़ोर ना पड़ जाये। कुछ गलत कदम ना उठा ले। अगर उसके दिल का दरिया बह गया, तो शायद वो भी बह जायेगा गम के अंतहीन समंदर में। जहाँ से वापिस आना उसके लिए शायद मुमकिन ना हो। इसिलिए बस वो तूफान वो अपने अंदर समा कर रखा था।
एक नामुकम्मल दास्तां

(भाग: चतुर्थ )

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**ये भाग 'मध्यांतर' है। सूकून से पढ़ियेगा। 'दुनिया से दूर जा रहा हूँ, माँ तेरे पास आ रहा हूँ। मैं भी ये गीत गा रहा हूँ, माँ शेरावालिये,माँ मेहरावालिये, ऊँचे पहाड़ावालिये।'

बस यही गुनगुना रहा था वो, और चलता जा रहा था लगातार। अट्ठारह किलोमिटर लम्बी चढ़ाई थी माँ वैष्णो देवी के द्वारे की। पैरों में तक़लीफ हो रही थी पर मन अडिग था उसका। एक हाथ में सिंदूर की डिबीया थी छोटी सी जिसे वो कस के हाथों में दबा कर आगे बढ़ रहा था माता रानी से मिलने। उसे शायद कोई होश ही नहीं था। जुबां और दिल में माँ का नाम था और यादों में बीते हुए दस महीने।

हाँ दस महीने हो चुके थे उस दिन को जिसे वो कभी भूल नहीं सकता था। दिल टूटना क्या होता है, ये तो उसे पता था। पर दिल चकनाचूर हो जाने पर जो ज़ख्म पल-दर-पल सीने में चुभते हैं, उस दर्द का अहसास उसे पहली बार हुआ था। जिस माँ से वो कभी कुछ नहीं छुपाता था, आज अपने आँसूओं को महफूज़ रखने की नाकाम कोशिश करता रहता था ताकी जिस दर्द से वो गुज़र रहा था, उसका इल्म ना हो उसकी माँ को। पर वो तो माँ थी और उन्हे सब पता था कि उनका बेटा किस दर्द से गुज़र रहा है। उन्हे बस हर वक़्त यही डर सताता था कि कहीं उनका लाडला बेटा कुछ कर ना ले खुद को। वो खुद अपने आँसू सबसे छुपाती थी और भगवान के सामने जा कर अपने बेटे की सलामती की दुआयें माँगा करती थी। ऐसा नहीं था कि उसको कुछ पता नहीं था अपनी माँ की मनोस्तिथि के बारे में, पर वो तो मानो असहाय हो चुका था। उसके सीने में दिल की जगह एक निर्वात उत्पन्न हो चुका था जिसने उसके शरीर की सारी उर्जा सोख ली थी और उसे अन्दर से खोखला बना दिया था। एक ऐसा निर्जीव शरीर जिसमे सांसें तो थी, मगर फिर भी वो जीवन-विहीन था। क्यूँकी उसकी जान तो जा चुकी थी।

वो दो दिन तक बिस्तर से उठा नहीं था। बस रोता रहता, तकिये में मुँह छुपा पर, कि कहीं किसी को उसके आँसू दिख ना जाए। जब आँसू सूख जाते तो सो जाता। माँ से उसकी हालत छिपी नहीं थी। वो पूछ-पूछ कर थक गयी थी लेकिन वो कुछ बताता ही नहीं था। पर आखिर ये सब कितने दिन चलता। उसे नौकरी पर भी तो जाना था। तीन दिन बाद वो बिस्तर से उठा और ऑफ़िस जाने के लिये तैयार हो गया। अब या तो वो रोते-रोते ऊब चुका था या उसकी आँखों के आँसू मर चुके थे। माँ के पाँव छुए और निकल गया घर से। दिन भर वो व्यस्त रहा अपने काम मे। ना कुछ खाया ना किसी से बात की। बस काम में मग्न रहा। आखिर मशिनें भी कुछ बोलती है? किसी के बात करती हैं? कुछ खाती हैं? वो भी बस कुछ ऐसा ही था। पर क्यूँ? शायद इसिलिए कि वो कमज़ोर ना पड़ जाये। कुछ गलत कदम ना उठा ले। अगर उसके दिल का दरिया बह गया, तो शायद वो भी बह जायेगा गम के अंतहीन समंदर में। जहाँ से वापिस आना उसके लिए शायद मुमकिन ना हो। इसिलिए बस वो तूफान वो अपने अंदर समा कर रखा था।