उभरती लकीरें डरी सहमी ज़िंदगियां शीशों के पीछे से झांक रही, वीरान सड़के बंद बाजारों कर्मवीरों को ताक रही। हंसती खेलती ज़िंदगी में वक्त ने डाला क्यों खलल, कमी रह गई थी सिखाने में सिखा रहा वही सबक। खुदा जाने कब तक यूंही बुरे वक़्त का दौर चलेगा, मालूम नही फिर से बिछड़ा हुआ वक्त कब मिलेगा चरमराती जा रही देश और घरों की अर्थ वयवस्था, बन्द हो गया उत्पादन,बढ़ रही हर दिन अव्यवस्था। उभर रही जन मानस के माथे पर चिंता की लकीरें, घटता जा रहा है भंडार खाली होते जा रहे पतीलें। Jp lodhi #उभरती लकीरें