ये उन दिनों की बात है, जब मैं सच में ज़िंदा रहता था, चहकता था कुदरत की बाहों में, खुद को आज़ाद परिंदा कहता था। पेड़ों की छांव मुझे सुलाती थीं, खुद को खुले आसमां का बाशिंदा कहता था, ये उन दिनों की बात है, जब मैं सच में ज़िंदा रहता था।। साथ लट्टू की फिरकी के भी, मैं अपने आप झूम जाता था, ले डोर पतंग की हाथों में, पूरा आसमां घूम आता था। कागज़ की नाव मेरे आंगन में ही, दरिया की सैर कराती थी, छुपन छुपाई के खेल में भी, वाह कितना मज़ा आ जाता था।। बाहर स्कूल के गेट पर, सपने सच हो हमसे मिलते थे, देख चूरन की गोली वाला, हम खुशी से ऐसे खिलते थे। उंगली में फसा खाने वाले, पापड़ भी हमें नसीब हुए, वो दूध की आइसक्रीम चखने के, मौके कभी कभार ही मिलते थे, डाल बिजली बम एंटिना में, हमने धमाके बेशुमार किए, लोरियां सुन मां बाबा से, संस्कार कई हज़ार लिए। रामलीला की सातों रात, हम साथ मुंगफली के बिताते थे, दशहरे में पा धनुष बाण को, कितना खुश हो जाते थे।। पैसे नहीं थे जेबों में, पर बिल्कुल ना शर्मिंदा रहता था, ये उन दिनों की बात है, जब मैं सच में ज़िंदा रहता था।। ©Arc Kay #shaayavita #beete_din #zindagi #zinda #woh_din