सूंदर सी कन्या थी एक मानो एक प्यारी गुड़िया चमकती थी मोती के भांती टूट गयी वो मानो जैसे चुड़िया... निकली थी शाम को एक दिन कुरता सलवार पहनी थी वो दरिंदों ने घेरा कुछ इस कदर बेहोश सड़क पर पड़ी रही वो चिखी-चिल्लायी गिरगिराती रही और लोगों ने केवल तस्वीरे खींची कोई मदद करो कहती रही वो अपनी लड़ाई खुद लड़ती गयी वो साहस की मूरत कहते थे जिसे लोग अब बेहया बतमीज़ कहने लगे इस पुरष प्रधान समाज ने उसे कुछ इस कदर मजबूर किये क्यों होता है अाज भी ऐसा क्यों नहीं समझते अाज भी लोग कुछ खास वर्ग केे पुरषों के करण जलिल होती हैं ये नारी लोग.. जलिल होती हैं ये नारी लोग..